________________
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी
के समय में जैन धर्मावलम्बियों का व्यक्तित्व व मंदिर व्यवस्था (समडोली (महा.) चातुर्मास, सन् १९२४ }
समडोली गांव सांगली के समीप है। कहने के लिये ही ये गांव हैं, परंतु जैनों की संख्या की अपेक्षा शहर ही कहने चाहिये। क्योंकि ऐसा इधर कोई गांव नहीं, जहांपर दो चार सौ जैनों के घर न हों। समुदाय अधिक होने से जैन धर्म की संस्कृति व प्रभावना भी इन गांवों में संतोषप्रद दिखाई देती है। इधर कोई ऐसा मनुष्य नहीं जो कि यज्ञोपवीत धारण न करता हो । जैन के सिवा किसी दूसरे के हाथ का स्पर्शित अन्न तो क्या, पानी तक भी इधर के जैन लोग नहीं पीते । प्रत्येक ग्राम में देवमंदिर रहता है और उसके पूजन की व्यवस्था के लिये स्वतंत्र मनुष्य नियत रहते हैं जिन्हें जिनयज्ञ यागादिका पूरा ज्ञान और अभ्यास रहता है। संस्कृत भाषा किसी भी हो तो भी ये पूजनपाठ का बहुत शुद्ध उच्चारण करते हैं। पूजनविधि के लिये जो मंत्रविधि, मुद्रा, न्यास, क्रिया आदि चाहिये वह सब इन्हें अभ्यस्त रहता है। ये लोग ब्रह्मवृत्ति से रहते हैं। इन्हें जैन ब्राह्मण भी कहा जाता है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सरीखे विधिविधानों को ये लोग बहुत अच्छी तरह और सर्वांग पूर्ण करना जानते हैं । कुछ लोग संस्कृत और धर्मशास्त्रों के अच्छे विद्वान भी इस जाति में पाये जाते हैं, जैसे उदगांव के श्री अप्पाशास्त्री, समडोली के श्री वासुदेव शास्त्री, कोल्हापुरके कलाप्पा अनंत शास्त्री, मैसूर के श्री शांतिराज शास्त्री, श्रवणबेलगुल (जैनबिद्री) के श्री दोर्बलि शास्त्री, शेडवाल के शांतिनाथ शास्त्री इत्यादि। और भी ऐसे कई शास्त्री हैं, जो कि प्रतिष्ठा विधि सरीखे भारी जिन पूजन सरीखे कार्य को बहुत सुंदर रीति से करते हैं।
इनकी जाती में विधवा विवाह सरीखी किसी भी निंद्य प्रथा का प्रचार नहीं । इनका कुल अत्यंत ही सदाचारी व उत्तम समझा जाता है। वर्णों में ब्राह्मण जैसे सर्व श्रेष्ठ माना जाता है, वैसे ही इधर के इन जैन ब्राह्मणों के प्रति सारे जैन समाज का आदर भाव रहता है ।
प्रत्येक गांव में एक-दो मंदिर के सिवा गृहचैत्यालय भी अच्छी स्थिति वालों के यहाँ रहते हैं। इधर गृहचैत्यालयों का खासा रिवाज है। प्रत्येक गांव में कम से कम दस-बीस गृह चैत्यालय तो रहते ही हैं। धर्म और संख्या, इन दोनों दृष्टियों से दूर प्रांतों के लोगों को जो आनंद और प्रसन्नता शहरों में भी देखने को नहीं मिलती, वह यदि उन्हें इधर के गांवों में आने का सुयोग मिले तो प्राप्त होती है। ऐसे ही गांवों में यह समडोली भी एक प्रभावना युक्त गांव है। यहाँ महाराज का संघ सहित चातुर्मास शुरू हुआ।
Jain Education International
-साभार : आचार्य श्री शांतिसागर महामुनि का चरित्र,
संस्करण: सन् १९३४, पृष्ठ : ३६-४० लेखक : पं. वंशीधर शास्त्री, सोलापुर
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org