________________
शिवसुखदायक है जिनधर्म । रत्नत्रयमय नठ अठकर्म। हैं त्रिलोकमें श्रीजिनरूप । जिनमंदिर पुनि विविध स्वरूप ॥ ५ ॥ कृत्रिम और अकृत्रिम सार। नमन भुवि कर शिर धार। चर्चासागर नाम सुग्रंथ । संशयनाशक सुर शिवपंथ ॥ ६ ॥ विरचूँ देखि सिद्धांत अनेक । अवर पुराणादिक सेविवेक । पंचमकालविणे जिनपंथ । संशयरूप लखे विन मर्थ ॥७॥ समझे विनसमझे बह लरें। हृ एकांत पक्ष धरैं। झगडतही सब जन्म गमाय । जिनश्रुतमर्म न रंच लहाय ॥८॥ यातें केतेइक जो भर्म । दूर करनरच सुमर्म ।। पंडित अवर इतरजन संहूँ।हँसियो मति यह लखि श्रुत कहूँ ॥ ६ ॥ व्याकरणादिक कोष सु छंद । अलंकार आदिक श्रुतवृद। सो मैं पढ्यौ न, मानों बात । यातैभूलि देखि क्षमि भ्रात ॥ १०॥ रागी द्वेषी परमें सुनी। उद्धत परमादी अर गुनी । हमपर क्षमियो सब मम मिंत । द्वेषभाव हरि रहौनिचिंत ॥ ११ ॥ हम परसंशय मेटनकाज । करें वचनिकारूप समाज । पंडित मूरख सबही पढ़ें । यातें जैनपंथ नित बढ़े ॥ १२ ॥
वोहा यह विचार इस ग्रंथक, रचूँ स्वपर हित काज।
शारदको पुनि बंदिके, लहूँ श्रुतार्णव पाजे ॥ १३ ॥ देखकर । २. विचार । ३. ज्ञानी तथा अज्ञानी । ४. सब । ५. पाज-किनारा वा पार ।
REIयाचा मानना
[२]