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[१८] चंद्र और अभिवार्द्धत दोनों वर्षों का स्वरूप गणित प्रमाण सबी शा. स्त्रोमे खुलासापूर्वक होनेपरभी १२ महीनोंके वर्षको प्रमाणभूत मानना और १३ महीनोके वर्षको स्वरूपका बहाना बतलाकर प्र. माणभूत नहीं मानना यह तो प्रत्यक्षही अन्याय है । यदि १३ महीनोंका स्वरूप बतलानेका कहकर गिनतीमें प्रमाणभूत नहीं मानोगे, तो, १२ महीनोंकाभी स्वरूप बतलाया है उसकोभी गिनतीमें प्रमाणभूत नहीं मान सकोगे और शास्त्रों में तो १२ या १३ महीनोंके दोनों वर्षों के स्वरूप बतलाकर गिनतीमे प्रमाणभूत माने हैं. इस. लिये दोनों प्रकारके वर्ष मानने योग्य हैं, इसमें शास्त्रप्रमाणसे तो एकभी निषेध नहीं हो सकता. देखिये- ११ अंग,व १४ पूर्वादिमें जैसे दर्शन-ज्ञान-चारित्र-चौदहराजलोक--षद्रव्य--नवतत्त्व-चौदहगुणस्थान-जीवाजीवादि पदार्थोका स्वरूप व चरणकरणानुयोगमें संयमके आराधनकी क्रियाका स्वरूप बतलाया है. वोही सब मान्य करने योग्य है. इसलिये स्वरूप बतलाना सोही श्रद्धापूर्वक मान्य करने योग्य सत्यप्ररूपणा कही जाती है । जिसपरभी चरणकरणानुयोगमे संयमकी क्रियाका व षद्रव्य-नवतत्वादिकका स्वरूप बतलाया है, मगर उस मूजब मान्य करना कहा लिखा है. ऐसा कोई कहे और उसको प्रमाणभूत नहीं माने, तो, ११ अगं, व १४ पूर्वोके उत्थापनका प्रसंग आनेसे अनेक भवोंकी वृद्धि करनेवाली उत्सूत्र प्ररूपणा होवे.इसी तरहसे १३ महीनोंका स्वरूप कहकर प्रमाणभूत नहीं माने, तो, सूर्यप्रज्ञप्ति वगैरह पूर्वोक्त शास्त्रोके उत्थापनका प्रसंग भानेसे उत्सूत्र प्ररूपणा होगी । और जैसे षद्रव्य-नवतत्त्वादिकके स्वरूप शास्त्रोंमें कहे हैं उस मुजबही मानना पडताहै । तैसेही१२ म. हीनोंके स्वरूपकी तरह १३ महीनोंका स्वरूप शास्त्रोंमें बतलायाहै उस मुजबही १३ महीने प्रमाणभूत गिनती मानने पड़ते हैं. इसलिये '१३ महीनोंके अभिवर्द्धितवर्षका स्वरूप बतलायाहै, मगर मानना कहां लिखा है ऐसी उत्सूत्र प्ररूपणा करना और भोले जीवोंको संशयमें गेरना आत्मार्थी भवभिरूओंकों योग्य नहीं है।
१७- लौकिक आधिक महीना मानना या नहीं ?
कितनेक महाशय कहते हैं, कि- जैन टिप्पणामें तो पौष और आषाढ बढताथा अब लौकिक टिप्पणामें श्रावण भाद्रपदादिभी बढने लगे हैं सो कैसे माने जावे ? इसपर इतनाही विचार कर
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