Book Title: Bhudhar Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Kavi
Publisher: Bhudhardas Kavi

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Page 12
________________ মুঘলন प्रदार्थ टीका (ज्ञान ) उत्तम बुद्धि (जिहाज ) बोहित अर्थात् बडी नौका जो समुद्र में चलतो है (गणधर) सुनि बिशेप नो भगवान् को निरक्षर रूप बांणो को सुन कर अक्षर रूप करता है (से) जैसे (गुग्ण) सुभाव प्रबोगता ( पयोधि) समुद्र (निस) जिस के (अमर) देवता (समूह) मराइलो (भान ) पान कर (अवनो) पृथो (सोस) सिर ( प्रणाम) नमस्कार (किधौं ) काहों शायद (भाल) माथा (कुकर्म ) खोटे कम्म (रेखा) लकीर (अह) दि न (निश) रात्रि सरलार्थ टीका गणधर जैसे पण्डित मति १ श्रुत २ अवधि ३ मनः पय॑य ४ 1 चार ज्ञान के धारी ज्ञान रूप निहाज मैं बैठ कर उप्त के गुण रूप ससुटू को नहीं तिर सके भावार्थ उस के गुणों को नहीं पा सके और देवताओं की मण्डली में जिसके भागे सिर रगड़ रगड़ कर नमस्कोर करी है देवता ओंके माधि प्रर कहीं खोटे कर्म की लकीर बाकी यो जिस के मिटा ने हेतु ऐमो बुद्धि धार ण करी है ऐसे कौन आदि नाथ खोमो जिन के आगे हाथ जोर हम पांय पोमावती छंद का उत्सर्ग सुद्रा धर बनमैं; ठाडे ऋषम रिद्धि तज दौनौ । निश्चल अङ्ग मेल हि मानौं; दोनों सुजा छोर जिन लौनी। फसे अनन्त जन्तु जग चहला, दुखौ देख करुणा चित चौलौ । काढ न कान तिन्हें समरथ प्रभु, किधौं बांह दौरघ यह कौनौ ॥२

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