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मृधरौनशतक .५३
घनाक्षरी छन्द साचो देब सोई ना मैं, दोश को न लेश कोई, बाहि गुरु साचे उर, काउ को न चाहहै । स हो धर्म वही जहाँ, करुणा प्रधान कहो, ग्रन्यते ई आदि अन्त, एकसी निवाह है। यही जग र न चार, दूनही को परख यार, साचे लेउ झूठ डार, नरमी का लाहा है। मनुष बिवेक बिना पशु की,समोन गिना, तातै यही ठीक बात, पारनी सलाह है ॥ ४५ ॥
शब्दार्थ टोका (लेश ) लगाव ( करणा) दया (प्रधान ) बड़ा (अन्य ) शास्त्र ( रत्नचार ) देव १ गुरु २ धध ३ शास्त्र ४ (लाहा ) लाभ (विवेक) बिचार [ सलाह ] भलाई सम्मति मशवरा
सरलार्थ टीका वही देव साचे हैं जिन में कोई प्रकार के दोष का बगावनहीं है और गुरू वही सांचेहैंजिन के मन मैं किसीका मोह नहीं है और धम्म वही शुद्ध है जिस में दया प्रधान मानी है और शास्त्र वही ठीक है जहांपा दिसे ले कर अंत तक एक सानिवाह है कहीं विरोधीवधननहीं संसा बमैं यही चार रत्न हैं हेमिन इन हो की परिक्षा सञ्चा ग्रहण करमा