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भूधरजैनशतक
अज्ञानी जीव दुखी हैं ऐसा कथन
मत्तगयंद छंद अन्तक सौन छुटैन हचैपर, मूरखीव निरन्तर धूजे। चाहत है चित मैं नित हो सुख,होयन लाभ मनो रथ पूजे । तू परमन्दसति जगमैं भाई; आस बंध्यो दुखपावक भूजे । छोड़ विचक्षण येजडलक्षण' धौ रज धार सुखी किन हजै ॥ ७४ ॥ .
शब्दार्थ टीका (अन्तक ) यम मौत ( निरन्तर ) बराबर (धूजे ) कांप (मनोरथम तलब (पूजे ) मिल ( पावक ) भाग ( भूजै) नलै (विचक्षण) चतुर (नड़) मूर्ख।
सरलार्थ टौका यह बात निश्चय है कि मौतसे कोई नहीं बचेगा परन्तु मूर्ख जीव दम परदम कांपता है और अपने मन मैं नित सुख चाहता है परन्तु लाभ और मनोरथ नहीं मिलता परन्तु हे भाई तू बुद्धिहीन आशाके बश हो. कर दुःसरप अगनी में जलै है है चतुर येमूर्खके लक्षण छोड धीरजधा रकर सुखी क्यों नहीं होता।