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भूधरजैनशतक
५७ निजबितसमानअभिमानबिन,सुकरमुपचहिदानकर। योसनिसुधर्मषटकर्मभण, नरभोलाहालेउ नर ॥४८॥
शब्दार्थ टोका (श्रादित्य )१सूर्य (नित ) सदीव (सिम्झाय ) सामायक विशेष ( सोमाय )२सोमंअयं अर्थात् येशीतल (ताप ) गरमो (हर ) हरने वाला (बर) ऋोष्ट ( मङ्गल )३आनन्द (दायन ) देनेवाला (बुद्ध)४ पति (संयम ) इन्द्रियों का रोकना ( आदरों ) आदर सनमान से ( गुरु ] ५शिक्षक (वित ) धन ( सुक)६ करने योग ( सुपच ) पचने योग ( सनि ) सुनले (षटकम) छ कम्म जो ऊपर कहे और श्रावक को कर ने योग्य है ( भण) कहे सातौ बार के नाम जन पर अङ्ग कर दिये हैं जान लेना
सरलार्थ टीका पापरूप अन्धेरे के दूर करने को सूर्य के तुल्य की सिल्झाय मामा यक है सो नित करये और ससार रूप गरमों के दूर करने वाला जो शीत ल तर है सीकरये और जिन बर पूजा करने का नित्य नेम करो कसी है जिन वर पूजा मङ्गल की दाता है और भीवुद्ध आदर सनमान से सं यम धारणकरो और श्रीगुरु के चरणों मैं चितधरो और अपने धन समा न मान छोड़ कर कर ने बा पच ने योग्य जो दान है सो दो इसप्रकार मोसुधम्म छः कम कहे ते सन और नर भोलाभ ग्रहण कर