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भूधरजनशतक ३१ घरे अन्ध सनबन्धि, जान, खारथ के सड़ी । परहितकाजअपनीनकर, मूढराजअबसमझडरा तज लोका लाज निज काज को, पाज दावहै यक इत गुर ॥ २५ ॥.......... .
..शब्दार्थ टीका ...
(विणे ) इन्द्रियों के भोग [ बिनोद) भानन्द (विपत ] दुःप ( पर म पर ] अति (अशुच) अशुद्ध [ गेह ] घर ( नेह) प्रीति (जर) मू एवं ( पन्धु ) भाई ( सन्बन्धि ) सनवन्धि । मुतअल सक (पर जन जे आज ]पर लोग जो अपने शरीर से मिलापं रखते है जैसे मात दार ( स्वारथं ) अपने प्रयोजन (संगी ] साधी ( पर ] पराये [हित) भले कारण [अकान ) काम निकम्मा काम [ मूराज.) बड़े मूर्ख [ दाव) काल समय और यह शब्द जुवारियों को संघामें बोलते
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सरलार्थ टीका दशदिन अर्थात् छोड़े दिन इन् द्रियों के भोग का प्रानन्द है फिर व ही वड़ादुख है यहशरीर अशक्षीका घर है परन्तु मूर्ख मोहके कारण गह जानता मित्र बा भाई वा संवधी और पर जग जो अपने नाते दारहरअन्धसारसमंधो मितादिको अपने प्रयोजन का साथी समझते रे कोई काम नहो पानेका पराये भले के वास्तै अपना काम मत वि. गारे हेमूर्ख भव समभा कर पर अपने भलेले वाले लोगों की लाजको छोड़ दे आज,काल अर्थात् समय है ऐसा गुरू बाई वे है .. . .
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