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भूधरजैनशरामा कानौ कौडी विधै सुख, भव दुख करज अपार । बिन दौये नहीं छूटते; ले शक दाम उधार ॥२४॥
शब्दार्थ टीका (विषय सुख) इन्द्रियों के सुख (करण) ऋण [अपार ] बहुत लोग का) किञ्चित मात्र थोड़े से मी
सरलार्थ टीका इन्द्रियों के सुख कानी कोड़ी को तुल य तुन्छ है ऐसे सखों दो या सोन व दुख जो भारी धरज है अपने सिर कर लिया क्या तू नही जानतारें थोड़े से दाम उधार लियेभी नहीं घूट ते फिर तनां सारी काम करें सिर धरै है यह पयोंकर उतरे गा
মিত্তলা
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হুক্ষ্ম স্থ दस दिन विषै बिनोद, फेर बहु विपत परग्यर । अशुच गेह यह देह, नेह जानत न आप जर । मित्र बधु सनवन्धि, और पर जन जै अङ्गौ ।