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भूधरजैनशतक तिहि व्योम तदाकृत धारी । जन्म गहौर नदी पति नीर ग; ए तिर तोर भये अविकारी । सिद्धन थोक बमै शिव लोक ति, हौं पग धोक जकाल हमारी ॥ १२ ॥
शब्दार्थ टीका (तीरथनाथ) तीर्थंकर ( मोख ) छिद्र साँचा (मझार ) बिच (तिहि तिस जगह (व्योम ) आकाश थोथ पोल ( तदाकत ) तिस रुप (ग हीर.) अथाह गहरा (नदी पति ) समुद्र ( नोर ) जल (तोर) तट किनरा ( अवकारी) विना विकार वाले
सरलार्थ टोका सिओंको तीर्थ कर प्रणामकरै हैं तिन केगुणों के वर्णन करने में वृद्धि हारगई साँचेका मोमतोगलगया केवल तिस जगह आकाश अर्यात्यो
थ तिसरूप रहगर्द इस प्रकार सिद्धों का स्वरुप शास्त्रमैं कहाहै जवरुप | गहरे समुद्र के जलकोतिर कर किनारे पहुंचकर अविकारी होगये भा । वार्थ भवरुप समुद को तिर मोक्ष चले गये और कोई बिकार वाकीन
हौं रहा सिद्धी का थोक जो शिव लोक मैं बसे हैं उन सिद्धों को तीन कालहमारो पगधीक है
- श्रीसाधू परमेस्टो को नमस्कार