Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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भाषा ( जनभाषा) के रूपमें प्रचलित शौरसेनी प्राकृत भाषाको माध्यम बनाकर विशाल साहित्यका सृजन किया। कुछ भाषा वैज्ञानिकोंने इनकी कृतियोंकी इस भाषाको "जैन शौरसेनी" कहा है । आचार्य कुन्दकुन्दके उत्तरवर्ती अनेक आचार्योंने भी इनकी परम्पराको आगे बढ़ाते हुए इसी भाषामें साहित्य सृजन किया।
इस सन्दर्भ में यशस्वी विद्वान् बलभद्र जैनका यह कथन सर्वथा उपयुक्त है कि 'हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि कुन्दकुन्द केवल सिद्धान्त और आध्यात्मके ही मर्मज्ञ विद्वान् नहीं थे, अपितु वे भाषाशास्त्रके भी अधिकारी और प्रवर्तक विद्वान् थे। उन्होंने अपनी प्रौढ़ रचनाओं द्वारा प्राकृतको नये आयाम दिये, उसका संस्कार किया, उसे संवारा और नया रूप दिया । इसीलिए वे जैन शौरसेनीके आद्य कवि और रचनाकार माने जाते हैं।' ___प्राकृत भाषाओंके क्रमिक विकास एवं परिवर्तनोंके अध्ययनमें हमें कुन्दकुन्द के ग्रन्थोंसे बड़ी सहायता प्राप्त होती है, इससे हम उनके कालका निर्णय भी कर सकते हैं। प्राकृत भाषा-शास्त्रके विद्वान् प्राकृतभाषाके क्रमिक विकासका विश्लेषण करते हुए इस निष्कर्षपर पहुंचे हैं कि 'त्' और 'थ्' में परिवर्तन होते-होते प्रथम तो वे 'द्' और 'ध्' हुए, फिर क्रमशः 'द' का लोप हो गया और 'ध' के स्थानमें 'ह' का प्रयोग होने लगा। ऐतिहासिक दृष्टिसे भाषा-शास्त्रियोंने इस विकास-कालको ईसा पूर्व प्रथम शताब्दीका स्थिर किया है । कुन्दकुन्दकृत समयसार में हमें 'रथ' के स्थानपर 'रथ' और 'रह' दोनों ही परिवर्तित रूपोंका प्रयोग मिलता है । श्रुतपरम्पराके संरक्षक और पाहुड साहित्यके अनुपम स्रष्टा
यद्यपि श्रुत-विच्छेदके बाद और कुन्दकुन्दसे पूर्व 'श्रुतरक्षा' के लिए प्रयत्न तो होते रहे, किन्तु मान्यताओंके आधारपर जो मतभेद उत्पन्न हो गये थे उनपर साधिकार लिखनेका प्रयत्न किसीने नहीं किया। यह कार्य आचार्य कुन्दकुन्दने अपने ऊपर लिया। अंतः 'युग प्रतिष्ठापक' होनेका श्रेय कुन्दकुन्दको प्राप्त होना
स्वाभाविक है। यही कारण है कि उस समय और बादकी परम्पराने - आचार्य कुन्दकुन्दको वह स्थान दिया जो अन्यको प्राप्त नहीं हुआ। क्योंकि युग
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१. समयसार : मुन्नुडि : १० १०. सं०५० बलभद्र जैन.
२. समयसार : वही गाथा ९८. पृ० ७७. . ३. वही पृ० ६.
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