Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 18
________________ महाकवि स्वयम्भू पोर तुलसीदास शब्दों में समाहार-शक्ति के दर्शन स्वयम्भू की भाषा की त्मिक विचागे के प्रसार के लिए प्रयत्न किये हैं। दोनों मुख्य विशेषता है। तुलसीदास की भाषा क्रमसः पोह हुई की दष्टि अपनी-अपनी विशेष दार्शनिक परिधि में उदार है। मानस में भाषा का प्रत्यन्त सुवराहपा रूप प्राप्त है। किन्तु दार्शनिक सिद्धान्तों में पर्याप्त अन्तर भी है। होता है। तुलसीदास ने प्रवधी भाषा को अपने भाव व्यक्त करने का माध्यम बनाया है। किन्तु वे सस्कृत, स्वयम्भू का मुख्य उद्देश्य प्राचीन रामकथा की कुछ प्राकृत एवं अन्य क्षेत्रीय भाषानों के भी जानकार थे। भ्रान्ति मूनक घटनामो को बदलकर उमे जैनधर्म मे ढालना -भंडार इनका पत्यान विशाल है। प्रभिधा, लक्षणा, शाf ra athart frama व्यजना शक्तियों का चमत्कारिक प्रयोग उन्होंने किया है। उन्होने जैनधर्म के प्रमय सिद्धान्तो का प्रचार खब किया इस प्रकार तुलसीदास जी की शैली मे ऋजुता, सुबोषिता, चारुता, प्रल्पाल कारप्रियता पोर उपयुक्त प्रवाह प्रादि हैं। शायद हा काई जनतत्त्वमामामा का क्षेत्र उनी दष्टि गुणों का समावेश हो गया है। भाषा शैली विषयक विशे से बचा हो। मनुष्य जीवन की सार्थकता, सामारिक जीवन षताएं उनकी पूर्व प्रतिभा को ही परिचायक हैं।' में धार्मिक अनुष्ठानों का विधान, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, स्वयम्भ ने यद्यपि अपभ्रश के प्रायः सभी छन्दो का स्वर्ग-नरक प्रादि की तात्त्विक व्याख्या कर स्वयम्भ ने प्रयोग किया है। किन्तु उनके ग्रन्थ मे कडवक का प्रयोग अपना प्राध्यात्मिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। दार्शनिक बहलता से हपा है, जिसमें माठ अर्थालियो के बाद छत्ता विचारों के अन्तर्गत उन्होंने अणिकवाद, सर्वास्तिवाद छन्द का व्यवहार किया गया है। यही शैली रामचरित प्रादि अन्य मतो का खण्डन कर स्थाद्वाद और समत्वयोग मानस में भी हाई जाती है। तुलमीदास ने पाठ प्रर्धाग्नियों की प्रतिष्ठापना की है। यद्यपि ये सब परम्परागत जैन अर्थात् चौपाई के बाद दोहो का प्रयोग किया है। छन्द सिद्धान्त है तथापि अभिव्यक्ति को नवीनता मे स्वयम्भू प्रपोग मे तो वे निश्चित ही स्वयम्भ् एवं अपभ्रंश शंनी को अपनी मौलिकता है। जिनवर-भक्ति द्वारा मवंसामान्य से प्रभावित थे। को प्रवृत्ति से निवृत्ति की पोर प्रेरित करना उनका प्रमुख दोनों ही महाकवि नतिक पादों के प्रतिष्ठापक हैं। जोया जिममा प्रत स्वभावतः उनके ग्रन्थों के वर्णनों में से कुछ पंक्तियो नैतिक उपदेशों का प्रतिपादन सम्प्रदाय के घेरे से बाहर है। ने रम भरी उक्तियो का प्रभाव लिया है और जन-साधा. महाकवि तुलसीदास की प्राध्यात्मिकता एवं दार्शरण मे सरलता से प्रयोग की जाती है। तुलसीदास को निकता. जो रामचरितमानस में चित्रित हुई है, भक्तिवाद उक्तिया तो प्रसिद्ध है, किन्तु स्वयम्भू के पास भी उनका से शामिलोसामने भावना से बाबा . कम भडार नही है ; जैसे-तिय दुक्वहं खाणि विप्रोय भूत-प्रेत-पूजा तथा रहस्यवाद का खण्डनकर नैतिक धर्म की णिहि', 'सच्च उ जीविउ जलबिन्दु-सउ', 'गय दियहा कि स्थापना में अहिंसावाद को सर्वोच्च स्थान दिया है और एन्ति पडीवा', इत्यादि । हिंसा का परम्परागत रूप से विरोध किया है -'परपीडा प्राध्यात्मिक एवं दार्शनिक दृष्टिकोण सम नहीं अषमाई' प्रादि । महाकवि स्वयम्भू और तुलसीदास दोनों के ग्रन्थ- गोस्वामी जी की दार्शनिक पद्धति स्वतंत्र है। उनका प्रणयन के मूल में प्राध्यात्मिक एवं दार्शनिक भावना ही ज्ञान प्रत्यक्ष है, तर्क और वाद पर प्रवलम्बित नहीं।' प्रधिक प्रबल है। दोनों महाकवियो के समय धामिकता के उनके द्वारा माया, ब्रह्म, जीव, जगत् पादि के निरूपण में क्षेत्र में परिवर्तन जोरों से हो रहा था। प्रतः प्राय: दोनों उपासक और उपास्य की पृथक् सत्ता पूर्णतया प्रतिष्ठित ने विभिन्न दार्शनिक मतभेदों के समन्वय और एव प्राध्या- है। शरीर पर प्रात्मा का भिन्न मानते हए उन्होंने कर्म. १. अपभ्रंश-साहित्य, १० ६५ । ५. द्रष्टव्य-डा० उपाध्याय - 'महाकवि स्वयम्भू' । २. तुलसीदास, पृ० ३६५ । ६. तुलसी-दर्शन--डा. बलदेवप्रसाद मिश्र । ३. पउमचरिउ-हा. भायाणी, पृ० ७८ । ४ भारतीय जैन साहित्य संसद परिवेशन १, पृ० ७७ ७. रामचरितमानस की भमिका, पृ० १०८ । -डा० राजाराम जैन का निबन्ध । ८. तुलमीदास और उनका युग, ५० ३०२ ।

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