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अनेकान्त .
[ वर्ष १४
३-श्री सर्वनन्दि भट्टारर-इल्ल इलडु (उ) एगन खड्गासन प्रतिमा है. जिनके सिरके उपर तीन छत्र हैं । उस तीर्थक्कम उपका
थालेके दोनों ओर उड़ती हुई मोरपिच्छी है। शिलालेखकी ४-पल-कलन-तपंगेयदु सन्यासनन नोन्तु मुडिपिडर नकल इस प्रकार है५-अनवरत शास्त्र दान प्रविमल-चरित्र-जल
१-श्रीमच्छाया-चन्द्रनाथ स्वामी"ना (थ) धारैश्चित्रम्
२-श्रीमहे वेन्द्रकीर्ति भट्टारकरा६-दुरित निदाघ विघटम् कुर्यात् श्री सर्वनन्दीन्द्रः ३-वर प्रिय शिप्य रह वर्धमानदेवक निड्डिसिधरू मंगलम्
शिलालेख नं०६ अर्थ-समृद्ध शक संवत् ८०३ में कुन्दकुन्दान्वयी एक
यह शिलालेख पल्किगुड्डु पहाड़ी पर अशोकके शिलाबहुगड भष्टारकके विख्यात शिप्य सर्वनन्दि भट्टारकने यहाँ बल
लेखके बिल्कुल निकट खुदा हुना है। इसमें यह बताया है पधारकर, इस नगर और इस पवित्र भूमि (तीर्थ)का महान्
य)का महान् कि परसा ने यहां पर पज्य जटासिंहनन्दी प्राचार्यके चरण उपकारकर, बहुत कालतक यहाँ तपश्चरणकर संन्यास मरण स्थापित किये थे । शिलालेखके ऊपर दाई ओर प्राचार्य किया।
महाराजके चरण अंकित हैं। इनका समय लगभग ७वीं श्री सर्वनन्दीन्द्र अपने अनवरत शास्त्रदान और विशुद्ध शताब्दी है। शिलालेखका बाई ओरका भाग इस प्रकार चारित्रके द्वारा पापोंके आतापको दूर करें और मंगल करें। पढ़ा गया हैशिलालेख नं. ३
१-जटासिंहनन्दि प्राचार्य पादव यह शिलालेख पूर्वके दो लेखों की तरह चन्द्रवण्डी पर २-च (म्) वय्यम् पिडोम खुदा हुआ है । इसमें श्री अप्यएसन अजल । इससे आगे
शिलालेख नं०७ का भाग स्पष्ट नहीं पढ़ा जाता । इसमें जिस व्यक्निकी चर्चा
यह शिलालेख पल्किगुड्डु पहाडी की दक्षिण गुफाकी है, उसका सम्बन्ध ६वीं शताब्दी से है।
छतमें खुदा हुआ है। इसका सम्बन्ध (पश्चिमी चालुक्य. शिलालेख नं०४
वंशी) विक्रमादित्य नरेशसे है । शिलालेखसं प्रतीत होता है यह लेख भी चन्द्रबण्डी चट्टान पर है। इसमें मूलसंघके
कि यह विक्रमादित्य पंचम था (मन् १००६ से १०१७)। सेनगणान्वयी भहारकके भक्त, चोक वोडेयनकि सेट्रिके पुत्र ।
इसमें इस बातका उल्लेख है कि सुपसिद्ध श्राचार्य सिंहनंदि
तम्माडिगलने एक मास पर्यन्त इंगिनीमरण धारण किया पदनस्वामी पायफलकी निषधिका का उल्लेख है। यह तेरहवीं शताब्दी का है। शिलालेख इस प्रकार है
और इस समयमें श्री सिंहनन्दी अन्न, मतिमागर अन्न,
नरलोकमित्र और ब्रह्मचारी अत्नने उनकी वैयावृत्य की। १-श्रीमत् मूल संघड
स्वामी कुमारने इस अवधिमें जिन-विम्बकी पूजा की। २-सेनगण"(द) व भट्टार
सिंहनन्याचार्यके समाधिकरणके पश्चात् कल्याणकीर्तिने जैन ३-- वर (गुड) (चो)क-वो
शासन चलाया । इनका सम्बन्ध बिच्छुकुण्डेकी नागदेव४-डेयनकि सेटिय मग
यसदि से था और यह देशिक गण और कुन्दकुन्दान्वयके थे ५-पहन स्वामी पाय (क)
और इन्होंने चान्द्रायण जेसे व्रत किये थे। उनकी देशनासे ६-(स)न निषधि
अनेकोंने कर्म क्षय किये (1) उनके पश्चात् इण्डोलीके रविशिलालेख नं. ५
चन्द्राचार्य प्राचार्य-पदपर श्रामीन हुए। उनके शिष्योंमें यह शिलालेख परिकगुण्डुके पश्चिममें चंदोबेदार एक गुणसागर मुनिपति, गुणचन्द्र-मुनीन्द्र, अभयनन्दी मुनीन्द्र चहानके नीचे उत्कीर्ण है। इससे मालूम पड़ता है कि यहाँ माघनन्दी, जिनकी ख्याति गणदीपकके रूपमें थी, थे। पर देवेन्द्रकीर्ति भरकके प्रिय शिष्य वर्धमानदेवने छाया- इस लेखसे यह भी पता चलता है कि मुनि कल्याण चन्द्रनाथ स्वामी की एक प्रतिमा उत्कीर्ण कराई थी यह लेख कीर्तिने उसी स्थान पर एक जिन चैत्यका निर्माण कराया प्रहारहवीं शताब्दीका प्रतीत होता है। इस शिलालेखके था, जहां सिंहनन्धाचार्यने कठोर तप किया और निधनको बिल्कुल निकट बाई ओर एक मालेमें एक जैनसाधुकी प्राश हुए थे। उन्होंने विग्यकुण्डी प्राममें शान्तिनाथ भगवान्