Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय प्रतिपत्ति : जलवृद्धि का कारण]
तिभागे एत्थ णं वाउकाए य आउकाए य संचिट्ठइ। तत्थ णं जे से उवरिल्ले तिभागे एत्थ णं आउकाए संचिट्ठइ। अदुत्तरं च गोयमा! लवणसमुद्दे तत्थ तत्थ देसे बहवे खुड्डालिंजरसंठाणसंठिया खुड्डपायालकलसा पण्णत्ता। ते णं खुड्डापायाला एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, मूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं, मज्झे एगपएसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं उप्पिं मुहमूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं।
तेसिंणं खुड्डागपायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दस जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ता, सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य जाव असासया वि। पत्तेयं पत्तेयं अद्धपलिओ-वमट्ठिइयाहिं देवयाहिं परिग्गहिया।
तेसिं णं खुड्डगपायालाणं तओ तिभागा पण्णत्ता, तं जहा
हेछिल्ले तिभागे, मज्झिल्ले तिभागे, उवरिल्ले तिभागे। ते णं तिभागा तिणि तेत्तीसे जोयणसए जोयणतिभागं च वाहल्लेणं पण्णते। तत्थ णं जे से हेट्ठिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाए, मज्झिल्ले तिभागे वाउकाए आउकाए य, उवरिल्ले आउकाए। एवामेव सपुव्वावरेणं लवणसमुद्दे सत्त पायालसहस्सा अट्ठ य चुलसीया पायालसया भवंतीति मक्खाया। - तेसिं णं महापायालाणं खुड्डगपायालाण य हेट्ठिममज्झिमिल्लेसु तिभागेसु बहवे ओराला वाया संसेयंति संमुच्छिमंति एयंति चलंति कंपंति खुब्भंति घटेंति फंदंति, तं तं भावं परिणमंति, तया णं से उदए उण्णामिज्जइ, जया णं तेसिं महापायालाणं खुड्डुगपायालाण य हेट्ठिल्लमज्जिमिल्लेसु तिभागेसु नो बहवे ओराला जाव तं तं भावं न परिणमंति, तया णं से उदए न उन्नामिज्जइ। अंतरा वि य णं तेवायं उदीरेंति, अंतरा वि य णं से उदगे उन्नामिजइ, अंतरा वि य ते वायं नो उदीरेंति, अंतरा वि यणं से उदए नो उन्नामिजइ, एवं खलु गोयमा ! लवणसमुद्दे चाउद्दसट्ठमुदिट्ठपुण्णमासिणीसु अरेगं वड्डइ वा हायइ वा।
१५६. हे भगवन् ! लवणसमुद्र का पानी चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा तिथियों में अतिशय बढ़ता है और फिर कम हो जाता है, इसका क्या कारण है?
हे गौतम! जम्बूद्वीप नामक द्वीप की चारों दिशाओं में बाहरी वेदिकान्त से लवणसमुद्र में पिच्यानवै हजार(९५०००) योजन आगे जाने पर महाकुम्भ के आकार के बहुत विशाल चार महापातालकलश हैं, जिनके नाम हैं - वलयामुख, केयूप; यूप और ईश्वर । ये पातालकलश एक लाख योजन जल में गहरे प्रविष्ट हैं, मूल में इनका विष्कम्भ दस हजार योजन है और वहां से एक-एक प्रदेश की एक-एक श्रेणी से वृद्धिगत होते हुए मध्य में एक-एक लाख योजन चौड़े हो गये हैं। फिर एक-एक प्रदेश श्रेणी से हीन होते-होते ऊपर मुखमूल में दस हजार योजन के चौड़े हो गये हैं।'
इन पातालकलशों की भित्तियां सर्वत्र समान हैं । ये सब एक हजार योजन की मोटी हैं। ये सर्वथा
१. उक्तं च-जोयणसहस्सदसगं मूले उवरिं च होंति वित्थिण्णा।
मज्झे य सयसहस्सं तित्तियमेत्तं च ओगाढ़ा।
-संग्रहणीगाथा