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[जीवाजीवाभिगमसूत्र बाद पुनः कोई असंज्ञियों में जा सकता है। उत्कर्ष से साधिक दो सौ सागरोपम से नौ सौ सागरोपम तक रह सकता है। इसके बाद संसारी जीव अवश्य असंज्ञी में उत्पन्न होता है। ___ असंज्ञी की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है । इसके बाद वह पुनः संज्ञियों में उत्पन्न हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक असंज्ञियों में रह सकता है। यह अनन्तकाल वनस्पतिकाल है। कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से अनन्तलोक तथा असंख्येय पुद्गलपरावर्त रूप है। उन पुद्गलपरावर्तों का प्रमाण आवलिका के असंख्येयभागवर्ती समयों के बराबर है। ___ नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव सिद्ध हैं। वे सादि-अपर्यवसित हैं । अपर्यवसित होने से सदा उसी रूप में रहते हैं।
अन्तरद्वार-संज्ञी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो वनस्पतिकाल तुल्य है। असंज्ञी का अवस्थानकाल जघन्य और उत्कर्ष से इतना ही है।
असंज्ञी का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है, क्योंकि संज्ञी का अवस्थानकाल जघन्य-उत्कर्ष से इतना ही है। ___नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी का अन्तर नहीं है, क्योंकि वे सादि-अपर्यवसित हैं। अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं होता।
अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े संज्ञी हैं, क्योंकि देव, नारक और गर्भव्युत्क्रान्तिक तिर्यंच और मनुष्य ही संज्ञी हैं। उनसे नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पति को छोड़कर शेष जीवों से सिद्ध अनन्तगुण हैं, उनसे असंज्ञी अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव सिद्धों से अनन्तगुण हैं।
२४२. अहवा सव्वजीवा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, नोभवसिद्धिया-नोअभवसिद्धिया।
अणाइया सपज्जवसिया भवसिद्धिया, अणाइया अपज्जवसिया अभवसिद्धिया, साइयअपज्जवसिया नोभवसिद्धिया-नोअभवसिद्धिया। तिण्हंपि नत्थि अंतरं। अप्पाबहुयंसव्वत्थोवा अभवसिद्धिया, णोभवसिद्धिया-णोअभवसिद्धिया अणंतगुणा, भवसिद्धिया अणंतगुणा।
२४२. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिक।
भवसिद्धिक जीव अनादि-सपर्यवसित हैं। अभवसिद्धिक अनादि-अपर्यवसित हैं और उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध जीव सादि-अपर्यवसित हैं। अतः तीनों का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अभवसिद्धिक हैं, उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध उनसे अनन्तगुण हैं और भवसिद्धिक उनसे अनन्तगुण हैं।
विवेचन-भव्य-अभव्य को लेकर सर्वजीवों का त्रैविध्य यहां बताया है। जिनकी सिद्धि होने वाली है वे भव्य हैं, जिनकी सिद्धि कभी नहीं होगी, वे अभव्य हैं और जो भव्यत्व और अभव्यत्व के