Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 213
________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र १९४] मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी, अजोगी । मणजोगी णं भंते! ० ? जहन्त्रेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं । एवं वइजोगीवि । कायजोगी जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो । अजोगी साइए अपज्जवसिए । मणजोगिस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं वइजोगिस्सवि । कायजोगिस्स जहन्नेणं एक्वं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । अयोगिस्स णत्थि अंतरं । अप्पाबहुयंसव्वत्थोवा मणजोगी, वड़जोगी असंखेज्जगुणा, अजोगी अनंतगुणा, कायजोगी अनंतगुणा । २४४. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव चार प्रकार के हैं, उनके कथनानुसार वे चार प्रकार ये हैंमनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी । भगवन्! मनोयोगी, मनोयोगी रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है । वचनयोगी भी इतना ही रहता है। काययोगी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल तक रहता है। अयोगी सादि- अपर्यवसित है । मनोयोगी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । वचनयोगी का भी अन्तर इतना ही है। काययोगी का जघन्य अन्तर एक समय का है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अयोगी का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनोयोगी, उनसे वचनयोगी असंख्यातगुण, उनसे अयोगी अनन्तगुण और उनसे काययोगी अनन्तगुण हैं 1 विवेचन - योग - अयोग की अपेक्षा से यहां सर्व जीवों के चार भेद कहे गये हैं- मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी। इन चारों की संचिट्ठणा, अन्तर और अल्बहुत्व प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है । संचिणा - मनोयोगी जघन्य से एक समय तक मनोयोगी रह सकता है। उसके बाद द्वितीय समय में मरण होजाने से या मनन से उपरत हो जाने की अपेक्षा से एक समय कहा गया है । जैसाकि पहले भाषक के विषय में कहा गया है। विशिष्ट मनोयोग पुद्गल - ग्रहण की अपेक्षा यह समझना चाहिए। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक मनोयोगी रह सकता है । तथारूप जीवस्वभाव से इसके बाद वह नियम से उपरत हो जाता है । वचनयोगी से यहां मनोयोगरहित केवल वाग्योगवान द्वीन्द्रियादि अभिप्रेत हैं । वे जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक रह सकते हैं । यह भी विशिष्ट वाग्द्रव्यग्रहण की अपेक्षा से ही समझाना चाहिए। काययोगी से यहां तात्पर्य वाग्योग-मनोयोग से विकल एकेन्द्रियादि ही अभिप्रेत हैं । वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त उसी रूप में रहते हैं । द्वीन्द्रियादि से निकल कर पृथ्वी आदि में अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर द्वन्द्रियों में गमन हो सकता है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक उस रूप में रहा जा सकता है । अयोगी सिद्ध हैं । वे सादि- अपर्यवसित हैं, अतः वे सदा उसी रूप में रहते हैं ।

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