Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 216
________________ सर्वजीवाभिगम] [१९७ होती है-कोई पूर्वकोटि आयुवाली स्त्री पांच छह बार तिर्यंच या मनुष्य स्त्री के भवों में उत्पन्न होकर सौधर्म देवलोक की ५०पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली अपरिगृहीता देवी के रूप में उत्पन्न होकर पुनः मनुष्यतिर्यंच में उत्पन्न होकर दुबारा ५० पल्योपम की आयु वाली अपरिगृहीता देवी के रूप में उत्पन्न हो। इस तरह पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम की स्त्रीवेद की कायस्थिति होती है। ____तीसरी अपेक्षा से पूर्व विशेषणों वाली स्त्री ईशान देवलोक में उत्कृष्ट स्थितिवाली परिगृहीता देवी के रूप में नौ पल्योपम तक रहकर मनुष्य या तिर्यंच में उसी तरह रहकर दुबारा ईशान देवलोक में नौ पल्योपम की स्थितिवाली परिगृहीता देवी बने, इस अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक १८ पल्योपम की स्थिति बनती है। चौथी अपेक्षा से पूर्वोक्त विशेषण वाली स्त्री सौधर्म देवलोक की सात पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली परिगृहीता देवी के रूप में रहकर, मनुष्य या तिर्यंच का पूर्ववत् भव करके दुबारा सौधर्म देवलोक में उत्कृष्ट सात पल्योपम की स्थितिवाली परिगृहीता देवी बने,इस अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक १४ पल्योपम की कायस्थिति होती है। ___पांचवी अपेक्षा से स्त्रीवेद की कायस्थिति पूर्वकोटिपृथकत्व अधिक एक पल्योपम की है। वह इस प्रकार है-कोई जीव पूर्वकोटि की आयुवाली तिर्यंच या मनुष्य स्त्रियों में सात भव तक उत्पन्न होकर आठवें भव में देवकुरू आदिकों की तीन पल्योपम की स्थिति वाली स्त्रियों में उत्पन्न हो और वहां से मरकर सौधर्म देवलोक में जघन्यस्थिति वाली देवी के रूप में उत्पन्न हो, ऐसी स्थिति में पूर्वकोटिपृथक्त्वाधिक पल्योपमपृथक्त्व की कायस्थिति घटित होती है। ___पुरूषवेद की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। स्त्रीवेद आदि से निकलकर अन्तर्मुहूर्त काल पुरूषवेदक में रहकर पुनः स्त्रीवेद को प्राप्त करने की अपेक्षा से जघन्यकायस्थिति बनती है। देव, मनुष्य और तिर्यंच भवों में भ्रमण करने से पुरूषवेद की कायस्थिति उत्कृष्ट से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व होती है । इतने समय बाद पुरूषवेद का रूपान्तर होता ही है। ___ यहां शंका की जा सकती है कि जैसे स्त्रीवेद, नपुंसकवेद की जघन्य कायस्थिति एक समय की कही है। (उपशमश्रेणी में वेदोपशमन के पश्चात् एक समय तक स्त्रीवेद या नुपंसकवेद के अनुभवन को लेकर) वैसे पुरूषवेद की एक समय की कायस्थिति जघन्यरूप से क्यों नहीं कही गई है। समाधान में कहा गया है कि उपशमश्रेणी में जो मरता है, वह पुरूषवेद में ही उत्पन्न होता है, अन्य वेद में नहीं। अतः जन्मान्तर में भी सातत्य रूप से गमन की अपेक्षा एकसमयता घटित नहीं होती है। नपुंसकदेव की जघन्यस्थिति एक समय की है। स्त्रीवेद के अनुसार युक्ति कहनी चाहिए। उत्कर्ष . से वनस्पतिकाल पर्यन्त कायस्थिति है। __अवेदक दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित (क्षीणवेद वाले) और सादि-सपर्यवसित (उपशान्तवेद वाले)। सादि-सपर्यवसित अवेदक की कायस्थिति जघन्य से एक समय है, क्योंकि द्वितीय समय में मरकर देवगति में पुरूषवेद सम्भव है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहर्त की कायस्थिति है। तदनन्तर मरकर पुरूषवेद वाला हो जाता है या श्रेणी से गिरता हुआ जिस वेद से श्रेणी पर चढ़ा, उस वेद का उदय हो

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