Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 230
________________ सर्वजीवाभिगम ] [ २११ भगवन्! नीललेश्या वाला उस रूप में कितने समय तक रह सकता है, गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येभाग अधिक दस सागरोपम तक रह सकता है। कापोतलेश्या वाला जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम रहता है। तेजोलेश्या वाला जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पल्योपमासंख्येभाग अधिक तीन सागरोपम तक रह सकता है। पद्मलेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक दस सागरोपम तक रहता है। शुक्ललेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रह सकता है। अलेश्य जीव सादि- अपर्यवसित है, अतः सदा उसी रूप में रहते हैं । भगवन् ! कृष्णलेश्या का अन्तर कितना है ? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम का है। इसी तरह नीललेश्या, कापोतलेश्या का भी जानना चाहिए। तेजोलेश्या का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । इसीप्रकार पद्मलेश्या और शुक्ललेश्यादोनों का यही अन्तर है । भगवन्! अलेश्य का अन्तर कितना है ? गौतम! अलेश्य जीव सादि - अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। . भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले और अलेश्यों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले, उनसे पद्मलेश्या वाले संख्यातगुण, उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यातगुण, उनसे अलेश्य अनंतगुण, उनसे कापोतलेश्या वाले अनंतगुण, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक, उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में छह लेश्या वाले और एक अलेश्य यों सर्व जीव के सात प्रकार बताये हैं। उनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण इस प्रकार है कायस्थिति - कृष्णलेश्या लगातार जघन्य से अन्तर्मुहूर्त रहती है, क्योंकि तिर्यंच- मनुष्यों में कृष्णलेश्या अन्तर्मुहूर्त तक रहती है । उत्कर्ष से अन्तर्मुहर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रहती है। देव और नारक पाश्चात्यभगवत चरम अन्तर्मुहूर्त और अग्रेतनभवगत अवस्थित प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित लेश्या वाले होते हैं । अधः सप्तमपृथ्वी के नारक कृष्णलेश्या वाले हैं और तेतीस सांगरोपम की स्थिति वाले हैं। उनके पाश्चात्यभव का अन्तर्मुहूर्त और अग्रेतनभव का एक अन्तर्मुहूर्त यों दो अन्तर्मुहूर्त होते . हैं। लेकिन अन्तर्मुहूर्त के असंख्येय भेद होने से उनका एक ही अन्तर्मुहूर्त में समावेश हो जाता है। इस अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट कायस्थिति कृष्णलेश्या की घटित होती है । नीललेश्या की जघन्य कायस्थिति एक अन्तर्मुहूर्त है, युक्ति पूर्ववत् है । उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येयभाग अधिक दस सागरोपम की है। यह धूमप्रभापृथ्वी के प्रथम प्रस्तर के नैरयिक, जो नीललेश्या वाले हैं, और इतनी स्थिति वाले हैं, उनकी अपेक्षा से है। पाश्चात्य और अग्रेतन भव के क्रमशः चरम और आदिम अन्तर्मुहूर्त पल्योपम के असंख्येयभाग में समाविष्ट हो जाते हैं, अतएव अलग से नहीं कहे हैं ।

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