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[ जीवाजीवाभिगमसूत्र
अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी का अन्तर कहना चाहिए। केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है ।
सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञानी हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और दोनों स्वस्थान में तुल्य हैं। उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं और उनसे अज्ञानी अनन्तगुण हैं ।
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अथवा सर्व जीव छह प्रकार के हैं- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय। इनकी कायस्थिति और अन्तर पूर्वकथनानुसार कहना चाहिए ।
अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अनिन्द्रिय अनन्तगुण और उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं।
विवेचन - ज्ञानी और अज्ञानी की अपेक्षा से सर्व जीव के छह भेद इस प्रकार बताये हैं - १. आभिनिबोधिकज्ञानी ( मतिज्ञानी), २. श्रुतज्ञानी, ३. अवधिज्ञानी, ४. मन: पर्यायज्ञानी, ५. केवलज्ञानी, ६ . अज्ञानी । इनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व इस सूत्र में वर्णित है। वह इस प्रकार है
संचिट्ठणा (कायस्थिति ) - आभिनिबोधिकज्ञानी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक लगातार उस रूप में रह सकता हैं। क्योंकि जघन्य से सम्यक्त्वकाल इतना ही है । उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है । यह विजयादि में दो बार जाने की अपेक्षा समझना चाहिए। श्रुतज्ञानी की कायस्थिति भी इतनी ही है, क्योंकि आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों अविनाभूत हैं। कहा गया है कि जहां आभिनिबोधिकज्ञान है वहां श्रुतज्ञान है और जहां श्रुतज्ञान है वहां आभिनिबोधिकज्ञान है । ये दोनों अन्योन्य-अनुगत है।' अवधिज्ञानी की कायस्थिति जघन्य से एक समय है । यह एकसमयता या तो अवधिज्ञान होने के अनन्तर समय में मरण हो जाने से अथवा प्रतिपात से मिथ्यात्व में जाने से (विभंगपरिणत होने से ) जाननी चाहिए। उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम की हैं, जो मतिज्ञानी की तरह जाननी चाहिए । मनःपर्यायज्ञानी की कायस्थिति जघनय एक समय है, क्योंकि द्वितीय समय में मरण होने से प्रतिपात हो सकता है। उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है। क्योंकि चारित्रकाल उत्कर्ष से भी इतना है । केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित है । अतः उस भाव का कभी त्याग नहीं होता ।
अज्ञानी तीन प्रकार के हैं - अनादि- अपर्यवसित, अनादि सपर्यवसित और सादि सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित है, उसकी कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त हैं, क्योंकि उसके बाद कोई सम्यकत्व पाकर पुनः ज्ञानी हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल है जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है, क्योंकि ज्ञानित्व से परिभ्रष्ट होने के बाद इतने काल के अन्तर से अवश्य पुनः ज्ञानी बनता ही है ।
१.‘जत्थ आभिणिबोहियनाणं तत्थ सुयणाणं, जत्थ सुयणाणं तथ्य आभिणिबहियनाणं, दोवि एयाई अण्णोण्ण - मणुगयाई ' इति वचनात् ।