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[जीवाजीवाभिगमसूत्र होने से पुनः किसी के उसका उदय हो सकता है, उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है। इसी तरह मानकषायी और मायाकषायी का भी अन्तर कहना चाहिए। लोभकषायी का जघन्य से भी और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त का अन्तर है, केवल जघन्य से उत्कृष्ट बृहत्तर है।
सादि-अपर्यवसित अकषायी का अन्तर नहीं है। सादि-सपर्यवसित अकषायी का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है । इतने काल के बाद पुनः श्रेणीलाभ हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो क्षेत्र से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। पूर्व-अनुभूत अकषायित्व की इतने काल में पुनः नियम से प्राप्ति होती ही है। ____ अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े अकषायी, क्योंकि सिद्ध ही अकषायी हैं। उनसे मानकषायी अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोद-जीव सिद्धों से अनन्तगुण हैं । उनसे क्रोधकषायी विशेषाधिक हैं, क्योंकि क्रोधकषाय का उदय चिरकालस्थायी है, उनसे मायाकषायी विशेषाधिक हैं, और उनसे लोभकषायी विशेषाधिक हैं, क्योंकि माया और लोभ का उदय चिरतरकाल स्थायी है।
२४९. अहवा पंचविहा सव्वजीवा पण्णता, तं जहा-णेरइया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा सिद्धा। संचिट्ठणंतराणि जह हेट्ठा भणियाणि। ___ अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा मणुस्सा, णेरइया असंखेजगुणा, देवा असंखेजगुणा, सिद्धा अणंतगुणा, तिरिया अणंतगुणा।
सेत्तं पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता।
२४९. अथवा सब जीव पांच प्रकार के हैं-नैरयिक, तिर्यक्योनिक, मनुष्य, देव और सिद्ध। . संचिट्ठणा और अन्तर पूर्ववत् कहना चाहिए। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनुष्य, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण, उनसे देव असंख्येयगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण और उनसे तिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं।
इनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व पहले कहा जा चुका है।
इस तरह पंचविध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। सर्वजीव-षड्विध-वक्तव्यता
२५०. तत्थ णं जेते एवमाहंसु छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहाआभिणिबोहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी मणपजवणाणी केवलणाणी अण्णाणी।
आभिणिबोहियणाणी णं भंते! आभिणिबोहियणाणित्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छावष्टुिं सागरोवमाइं साइरेगाई, एवं सुयणाणीवि।
ओहिणाणी णं भंते! ०? जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं छावट्ठि सागरोवमाइं साइरेगाई। मणपजवणाणी णं भंते! ०? जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। केवलणाणी णं भंते०! ? साइए अपज्जवसिए।