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[ जीवाजीवाभिगमसूत्र
एगं समयं उक्कोसेणं वणस्सइकालो । नपुंसगवेयस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं । अवेयगो जह हेट्ठा। अप्पाबहुयं - सव्वत्थोवा पुरिसवेदगा, इत्थवेदगा संखेज्जगुणा, अवेदगा अनंतगुणा, नपुसकवेदगा अणंतगुणा ।
२४५. अथवा सर्व जीव चार प्रकार के हैं - स्त्रीवेदक, पुरूषवेदक, नपुसंकवेदक और अवेदक ।
भगवन् ! स्त्रीवेदक, स्त्रीवेदक रूप में कितने समय तक रह सकता है? गौतम ! विभिन्न अपेक्षा से (पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक) एक सौ दस, एक सौ, अठारह, चौदह पल्योपम तक तथा पल्योपमपृथक्त्व रह सकता है । जघन्य से एक समय तक रह सकता है ।
पुरूषवेदक, पुरूषवेदक के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व तक रह सकता है। नपुंसकवेदक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक रह सकता है । अवेदक दो प्रकार के है - सादि - अपर्यवसित और सादि सपर्यवसित । सादि-सपर्यवसित अवेदक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है।
स्त्रीवेदक का अन्तर जघन्य अन्र्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । पुरूषवेदक का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । नपुंसकवेदक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है । अवेदक का जैसा पहले कहा गया है, अन्तर नहीं है।
अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पुरुषवेदक, उनसे स्त्रीवेदक संख्येयगुण, उनसे अवेदक अनन्तगुण और उनसे नपुंसकवेदक अनन्तगुण हैं ।
विवेचन - वेद की अपेक्षा से सर्व जीवों के चार प्रकार बताये हैं- स्त्रीवेदक, पुरूषवेदक; नपुसंकवेदक और अवेदक । इनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व यहां प्रतिपादित है ।
संचिट्ठणा- स्त्रीवेदक, स्त्रीवेदक के रूप में कितना रह सकता है ? इस प्रश्न में उत्तर में पांच अपेक्षाओं से पांच तरह का कालमान बताया गया है । यह विषय विस्तार से त्रिविध प्रतिपत्ति में पहले कहा जा चुका है, फिर भी संक्षेप में यहां दे रहे हैं । स्त्रीवेद की कायस्थिति एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट ११० पल्योपम की है । कोई स्त्री उपशम श्रेणी में वेदत्रय के उपशमन से अवेदकता का अनुभव करती हुई पुनः उस श्रेणी से पतित होती हुई कम-से-कम एक समय तक स्त्रीवेद के उदय
भोगती है।द्वतीय समय में वह मरकर देवों में उत्पन्न हो जाती है, वहां उसको पुरूषवेद प्राप्त हो जाता है । अत: उसके स्त्रीवेद का काल एक समय का घटित होता है ।
कोई जीव पूर्वकोटि की आयुवाली मनुष्य या निर्यंच स्त्री के रूप में पांच या छह भवों तक उत्पन्न हो, फिर वह ईशानकल्प में पचपन पल्योपम प्रमाण की आयुवाली अपरिगृहीता देवी की पर्याय में उत्पन्न होवे, वहाँ से पुनः पूर्वकोटि आयुवाली मनुष्य या तिर्यंच स्त्री के रूप में उत्पन्न होकर दूसरी बार ईशान देवलोक में पचपन पल्योपम की आयुवाली अपरिगृहीता देवी में उत्पन्न हो, इस तरह पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक ११० पल्योपम तक वह जीव स्त्रीपर्याय में लगातार रह सकता है।
दूसरी अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम की कायस्थिति स्त्रीवेद की इस प्रकार घटित