Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 212
________________ सर्वजीवाभिगम ] विशेषण से रहित हैं, वे सिद्धजीव नोभव्य-नोअभव्य हैं । भवसिद्धिक जीव अनादि - सपर्यवसित हैं, अन्यथा वे भवसिद्धिक नहीं हो सकते। अभवसिद्धिक अनादि-अपर्यवसित हैं, अन्यथा वे अभवसिद्धिक नहीं हो सकते । नोभवसिद्धक-नोअभवसिद्धिक सादिअपर्यवसित हैं, क्योंकि सिद्धों का प्रतिपात नहीं होता । अतएवं इनकी अवधि न होने से कायस्थितिसम्बन्धि प्रश्न नहीं है तथा इन तीनों का अन्तर भी नहीं घटता है, क्योंकि भवसिद्धिकत्व जाने पर पुनः भवसिद्धिकत्व असंभव है । अभवसिद्धिक का भी अन्तर नहीं हैं, क्योंकि वह अपर्यवसित होने से कभी नहीं छूटता। सिद्ध भी सादि - अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े अभव्य हैं, क्योंकि वे जघन्य युक्तानन्तक के तुल्य है । उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध उनसे अनन्तगुण हैं, क्योंकि अभव्यों से सिद्ध अनन्तगुण हैं और उनसे भवसिद्धिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि भव्य जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं । [ १९३ २४३. अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा- तसा, थावरा, नोतसा-नोथावरा। तसे णं भंते! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं साइरेगाई । थावरस्स संचिट्ठणा वणस्सइकालो । गोतसा-नोथावरा साइअपज्जवसिया ।. तसस्स अंतरं वणस्सइकालो । थावरस्स अंतरं दो सागरोवमसहस्साइं साइरेगाई । णोतसथावरस्स णत्थि अंतरं । अप्पाबहुयं सव्वत्थोवा तसा, नोतसा - नोथावरा अनंतगुणा, थावरा अनंतगुणा । सेतं तिविधा सव्वजीवा पण्णत्ता । २४३. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं- त्रस, स्थावर और नोत्रस - नोस्थावर । भगवन्! त्रस, त्रस के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक दो हजार सागरोपम तक रह सकता है । स्थावर, स्थावर के रूप में वनस्पतिकाल पर्यन्त रह सकता है। नोत्रस-नोस्थावर सादि-अपर्यवसित हैं । त्रस का अन्तर वनस्पतिकाल है और स्थावर का अन्तर साधिक दो हजार सागरोपम है। नोत्रसनोस्थावर का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े त्रस हैं, उनसे नोत्रस - नोस्थावर (सिद्ध) अनन्तगुण है और उनसे स्थावर अनन्तगुण हैं । यह सर्व जीवों की त्रिविध प्रतिपत्ति पूर्ण हुई । (यह सूत्र वृत्ति में नहीं है । भवसिद्धिकादि सूत्र के बाद " से तं तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता" कहकर समाप्ति की गई है ।) सर्वजीव - चतुर्विध-वक्तव्यता २४४. तत्थ णं जेते एवमाहंसु चउव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहा

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