________________
१९०]
[जीवाजीवाभिगमसूत्र
अल्प हैं। उनसे अपर्याप्तक अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोदजीवों में अपर्याप्तक अनन्तानन्त सदैव लभ्यमान हैं। उनसे पर्याप्तक संख्येयगुण हैं, क्योंकि सूक्षमों में ओघ से अपर्याप्तकों से पर्याप्तक संख्येयगुण हैं।
२४०. अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सुहुमा बायरा नोसुहुम-नोबायरा।
सुहुमे णं भंते! सुहुमेत्ति कालओ केवचिरं होइ? जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखिउजकालं पुढविकालो। बायरा जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखिजकालं असंखिजाओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागो। नोसुहम-नोबायरे साइए अपज्जवसिए।
सुहमस्स अंतरं बायरकालो। बायरस्स अंतरं सुहुमकालो। तइयस्स नोसुहुम-नोबायरस्स अंतरं णत्थि ।
अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा नोसुहुम-नोबायरा, बायरा अणंतगुणा, सुहुमा असंखेजगुणा। २४०. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-सूक्ष्म, बादर और नोसूक्ष्म-नोबादर।
भगवन् ! सूक्ष्म, सूक्ष्म के रूप में कितने समय तक रहता है। गौतम! जघन्य से अन्तर्महूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल अर्थात् पृथ्वीकाल तक रहता है। बादर, बादर के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्येयकाल तक रहता है । यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अंवसर्पिणी रूप है कालमार्गणा से। क्षेत्रमार्गणा से अंगुल का असंख्येयभाग है।
नोसूक्ष्म-नोबादर सादि-अपर्यवसित है। सूख्य का अन्तर बादरकाल है और बादर का अन्तर . सूक्ष्मकाल है। तीसरे नोसूक्ष्म-नोबादर का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े नोसूक्ष्म-नोबादर हैं, उनसे बादर अनन्तगुण हैं और उनसे सुक्ष्म असंख्येयगुण हैं।
विवेचन-सूक्ष्म और बादर को लेकर तीन प्रकार के सर्व जीव कहे हैं-सूक्ष्म, बादर और नोसूक्ष्म-नोबादर। इन तीनों की कायस्थिति, अन्तर तथा अल्पबहुत्व इस सूत्र में बताया है।
कायस्थिति-सूक्ष्म की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद पुनः बादरों में उत्पत्ति हो सकती है। उत्कर्ष से कायस्थिति असंख्येयकाल है। यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सर्पिणीअवसर्पिणी रूप है कालमार्गणा से, क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों के प्रति-समय एकएक के अपहारमान से निर्लेप होने के काल के बराबर है। यही पृथ्वीकाल कहा जाता है।
बादर की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद कोई जीव पुनः सूक्ष्मों में चला जाता है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल है। यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है कालमार्गणा से, क्षेत्रमार्गणा से अंगुलासंख्येयभाग है। अर्थात् अंगुलमात्र क्षेत्र के असंख्येयभागवर्ती आकाश-प्रदेशों के प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार किये जाने पर निर्लेप होने के काल के बराबर है। इतने समय के बाद संसारी जीव सूक्ष्मों में नियमतः उत्पन्न होता है।
नोसूक्ष्म-नोबादर सिद्ध जीव हैं, सादि-अपर्यवसित होने से सदा उसी रूप में बने रहते हैं।