Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 207
________________ १८८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र संसारपरित्त जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक उसी रूप में रह सकता है। इसके बाद कोई अन्तकृत्केवली होकर मोक्ष में जा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक उसी रूप में रह सकता है। वह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप होता है और क्षेत्र से अपार्धपदगलपरावर्त होता है। इसके बाद नियम से वह सिद्धि प्राप्त करता है। अन्यथा संसारपरित्तत्व का कोई मतलब नहीं रहता। अपरित्त दो प्रकार के हैं -काय-अपरित्त और संसार-अपरित्त। काय-अपरित्त साधारण वनस्पति जीव हैं और संसार-अपरित्त कृष्णपाक्षिक जीव हैं। काय-अपरित्त जघन्य से अन्तर्मुहूर्त उसी रूप में रह सकता है, तदनन्तर किसी भी प्रत्येक शरीरी में जा सकता है। उत्कर्ष से वह अनन्तकाल तक उसी रूप में रह सकता है। यह अनन्तकाल वनस्पतिकाल हैं, जिसका स्पष्टीकरण पहले कालमार्गणा और क्षेत्रमार्गणा से किया जा चुका है। ___ संसार-अपरित्त दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित, जो कभी मोक्ष में नहीं जायेगा और अनादिसपर्यवसित (भव्य विशेष)। नोपरित्त-नोअपरित सिद्ध जीव है। वह सादि-अपर्यवसित है, क्योंकि वहां से प्रतिपात नहीं होता। अन्तरद्वार-काय-परित्त का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। साधारणों में अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः प्रत्येकशरीरी में आया जा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल पूर्वोक्त वनस्पतिकाल समझना चाहिए। उतने काल तक साधारण रूप में रह सकता है। संसार-अपरित्त का अन्तर नहीं हैं। क्योंकि संसार-परित्तत्व से छूटने पर पुनः संसार-परित्तत्व नहीं होता तथा मुक्त का प्रतिपात नहीं होता। काय-अपरित्त का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। प्रत्येक-शरीरों में अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः काय-अपरित्तों में आना संभव है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल का अन्तर है। यह असंख्येयकाल पृथ्वी काल है। इसका स्पष्टीकरण कालमार्गणा और क्षेत्रमार्गणा से पहले किया जा चुका है। पृथ्वी आदि प्रत्येकशरीरी भवों में भ्रमणकाल उत्कर्ष से इतना ही है। संसार-अपरित्तो में जो अनादि-अपर्यवसित हैं, उनका अन्तर नहीं होता अपर्यवसित होने से और अनादि-सपर्यवसित का भी अन्तर नहीं होता, क्योंकि संसार-अपरित्तत्व के जाने पर पुनः संसारअपरित्तत्व संभव नहीं है। नोपरित्त-नोअपरित्त का भी अन्तर नहीं है, क्योंकि वे सादि-अपर्यवसित होते हैं। अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े परित्त हैं, क्योंकि काय-परित्त और संसार-परित्त जीव थोड़े हैं। उनसे नोपरित्त-नोअपरित्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध जीव अनन्त हैं। उनसे अपरित्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि कृष्णपाक्षिक अतिप्रभूत हैं। २३९. अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा, अपजत्तगा, नोपजत्तगानोअपजत्तगा। पज्जत्तगे णं भंते!०? जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं

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