Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 206
________________ सर्वजीवाभिगम] [१८७ २३८. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त। भगवन् ! परित्त, परित्त के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! परित्त दो प्रकार के हैंकायपरित्त और संसारपरित्त। भगवन् ! कायपरित्त, कायपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येय काल तक यावत् असंख्येय लोक। भंते ! संसारपरित्त, संसारपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल जो यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्तरूप है। भगवन् ! अपरित्त, अपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! अपरित्त दो प्रकार के हैं-काय-अपरित्त और संसार-अपरित्त। भगवन् ! काय-अपरित्त, काय-अपरित्त के रूप में कितने काल रहता है? गौतम! जघन्य से अंन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल तक रहता है। संसार-अपरित्त दो प्रकार के हैं -अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित। नौपरित्त- नोअपरित्त सादि-अपर्यवसित है। कायपरित्त का जघनय अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। संसारपरित्त का अन्तर नहीं है। काय-अपरित्त का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्येयकाल अर्थात् पृथ्वीकाल है। अनादि-अपर्यवसित संसारापरित्त का अंतर नहीं है। अनादि-सपर्यवसित संसारापरित्त का अन्तर नहीं है । अनादि-सपर्यवसित संसारापरित्त का भी अन्तर नहीं है। नोपरित्त-नोअपरित्त का भी अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े परित्त है, नोपरित्त-नोअपरित्त अनन्तगुण हैं और अपरित्त अनन्तगुण हैं। विवेचन-अन्य विवक्षा से सर्व संसारी जीव तीन प्रकार के हैं-परित्त, अपरित्त और नोपरित्तनोअंपरित्त। परित्त का सामान्यतया अर्थ है सीमित। जिन्होंने संसार का तथा साधारण वनस्पतिकाय क सीमित कर दिया है, वे जीव परित्त कहलाते है। इससे विपरीत अपरित्त हैं तथा सिद्धजीव नोपरित्तनोअपरित्त हैं । इन तीनों प्रकार के जीवों की कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का विचार इस सूत्र में किया गया है। कायस्थिति-परित्त दो प्रकार के हैं -कायपरित्त और संसारपरित्त । कायपरित्त अर्थात् प्रत्येकशरीर। संसारपरित्त अर्थात् जिसका संसार-परिभ्रमणकाल अपार्धपुद्गलपरावर्त के अन्दर-अन्दर है। कायपरित्त जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक कायपरित्त रह सकता है। वह साधरणवनस्पति से परित्तों में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः साधारण में चले जाने की अपेक्षा से है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल तक रह सकता है। यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्र से असंख्येय लोकों के आकाशप्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लेप हो जायें, उतने समय तक का है। अथवा यों कह सकते हैं कि पृथ्वीकाय आदि प्रत्येक-शरीरी का जितना संचिट्ठणकाल है, उतने काल तक रह सकता है। इसके पश्चात् नियम से साधारण रूप में पैदा होता है।

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