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सर्वजीवाभिगम]
[१८९ साइरेगं। अपजत्तो णं भंते०.? जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। नोपजत्तनोअपजत्तए साइए अपज्जवसिए। __पजत्तगस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । अपजत्तगस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं । तइयस्स णत्थि अंतरं।
अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा नोपजत्तग-नोअपज्जत्तगा, अपजत्तगा अणंतगुणा, पजत्तगा संखिजगुणा।
२३९. अथवा सब जीव तीन तरह के हैं-पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक।
भगवन् ! पर्याप्तक, पर्याप्तक रूप में कितने समय तक रहता है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ सागरोपम) तक रह सकता है।
भगवन् ! अपर्याप्तक, अपर्याप्तक के रूप में कितने समय तक रह सकता है? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है।
नोपयार्पप्तक-नोअपर्याप्तक सादि-अपर्यवसित है। - भगवन् ! पर्याप्तक का अन्तर कितना है? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त है। अपर्याप्तक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपशत-पृथक्त्व है। तृतीय नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक का अन्तर नहीं है।
अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक है, उनसे अपर्याप्तक अनन्तगुणहैं, उनसे पर्याप्तक संख्येयगुण हैं।
विवेचन-पर्याप्तक की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। जो अपर्याप्तकों से पर्याप्तक में उत्पन्न होकर वहां अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर अपर्याप्त में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। उत्कृष्ट कायस्थिति दो सौ से लेकर नौ सौ सागरोपम से कुछ अधिक है। इसके बाद नियम से अपर्याप्तक रूप में जन्म होता है। यह कथन लब्धि की अपेक्षा से है, अतः अपान्तराल में उपपात अपर्याप्तकत्व के होने पर भी कोई दोष नहीं है। अपर्याप्त की कायस्थिति जघन्य और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, क्योंकि अपर्याप्तलब्धि का इतना ही काल है। जघन्य से उत्कृष्ट पद अधिक है। नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक सिद्ध हैं। वे सादिअपर्यवसित हैं, अतः सदाकाल उसी रूप में रहते हैं। . ___ पर्याप्तक का अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि अपर्याप्तकाल ही पर्याप्तक का . अन्तर है। अपर्याप्तकाल जघन्य से और उत्कृर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त ही है। अपर्याप्तक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सागरोपम-शतपृथक्त्व है। पर्याप्तक काल ही अपर्याप्तक अन्तर है और पर्याप्तकाल जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपशमतपृथक्त्व ही है।
नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त का अन्तर नहीं है, क्योंकि वे सिद्ध हैं और वे अपर्यवसित हैं। अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक हैं, क्योंकि सिद्ध जीव शेष जीवों की अपेक्षा