Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 109
________________ ९०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र और बल से उद्धत बने हुए हैं, जम्बूनद स्वर्ण के बने घनमंडल वाले और वज्रमय लाला से ताडित तथा आसपास नाना मणिरत्नों की छोटी-छोटी घंटिकाओं से युक्त रत्नमयी रज्जु में लटके दो बड़े घंटों के मधुर स्वर से वे मनोहर लगते हैं। उनकी पूंछे चरणों तक लटकती हुई हैं, गोल हैं तथा उनमें सुजात और प्रशस्त लक्षण वाले बाल हैं जिनसे वे हाथी अपने शरीर को पोंछते रहते हैं। मांसल अवयवों के कारण परिपूर्ण कच्छप की तरह उनके पांव होते हुए भी वे शीघ्र गति वाले हैं । अंकरत्न के उनके नख हैं , तपनीय स्वर्ण के जोतों द्वारा वे जोते हुए हैं । वे इच्छानुसार गति करने वाले हैं, प्रीतिपूर्वक गति करने वाले हैं, मन को अच्छे लगने वाले हैं, मनोरम हैं, मनोहर हैं , अपरिमित गति वाले हैं, अपरिमित बलवीर्य-पुरुषकार-पराक्रम वाले हैं। अपने बहुत गंभीर एवं मनोहर गुलगुलाने की ध्वनि से आकाश को पूरित करते हैं और दिशाओं को सुशोभित करते हैं। (इस प्रकार चार हजार हाथी रूपधारी देव चन्द्रविमान को दक्षिणदिशा से उठा कर गति करते रहते हैं) १९४. (इ) चंदविमाणस्स णं पच्चत्थिमेणं से याणं सुभगाणं सुप्पभाणं चंकमियललियपुलिय-चलचवलककुदसालणं सण्णयपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं मियमाइयपीणरइइपासाणं झसविहग सुजायकुच्छीणं पसत्थणिद्धमधुगुलियभिसंतपिंगलक्खाणं विसालपीवरोरुपडि पुण्णविउलखंधाणं वट्ट पडि-पुण्णविउलकवोलकलियाणं घणणितियसुबद्धलक्खणुण्णतइसिआणयवसभोट्ठाणं चंकमियललियपुलियचक्क वालचवलगव्वियगईणं पीनपीवरवट्टियसुसंठियकडीणं ओलंबपलंबलक्खणपमाणजुत्तपसत्थरम -णिज्ज वालगंडाणं समखुरवालधाणीणं समलिहियतिक्खग्गसिंगाणं तणुसुहुमसुजायणिद्धलो -मच्छविधराणं उवचियमंसलविसाल-पडिपुण्णखुद्दपमुहपुंडाणं (खंधपएसे सुंदराणं) वेरुलियभिसंतकडक्खसुनिरिक्खणाणं जुत्तप्पमाणप्पहाणलक्खण पसत्थरमणिज्जगग्गरगलसोभि -याणं घग्घरगसुबद्धकंठपरिमंडियाणं नानामणिकणगरयणघंटवेयच्छगसूकयरइयमालियाणं वरघंटागलगलियसोभंतसस्सिरीयाणं पउमुष्पलसगलसुरभिमालाविभूसियाणं वइरखुराणं विविहखु राणं फलियामयदंताणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमियगईण अमियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमाणं महया गंभीरगज्जियरवेणं महुरेणं मणहरेण य पूरेता अंबरं दिसाओ यसोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ वसभरूवधारीणं देवाणं पच्चथिमिल्लं बाहं परिवहंति। ___ १९४. (इ) उस चन्द्रविमान को पश्चिमदिशा की ओर से चार हजार बैलरूपधारी देव उठाते हैं। उन बैलों का वर्णन इस प्रकार है-- वे श्वेत है, सुन्दर लगते हैं, उनकी कांति अच्छी है, उनके ककुद (स्कंध पर उठा हुआ भाग कुछ कुछ कुटिल हैं , ललित (विलासयुक्त) और पुष्ट हैं तथा दोलायमान हैं, उनके दोनों पार्श्वभाग सम्यग् नीचे की ओर झुके हुए हैं , सुजात हैं , श्रेष्ठ हैं, प्रमाणोपेत हैं, परिमित मात्रा में ही मोटे होने से सुहावने लगने वाले हैं, मछली और पक्षी के समान पतली कुक्षि वाले हैं, इनके नेत्र प्रशस्त, स्निग्ध,

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