Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 178
________________ अष्टविधाख्या सप्तम प्रतिपत्ति] [१५९ समय कम संचिट्ठणा है। पूर्वकोटि आयुष्क वाले लगातार सात भव और आठवें भव में देवकुरू आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से उक्त संचिठ्ठणाकाल जानना चाहिए। अन्तरद्वार-प्रथमसमयनैरयिक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त अधिक दसहजार वर्ष है। यह दसहजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक के नरक से निकलकर अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त अन्यत्र रहकर फिर नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से हे । उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो नरक से निकलने के पश्चात् वनस्पति में अनन्तकाल तक उत्पन्न होने के पश्चात् पुनः नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। __अप्रथमसमयनैरयिक का जघन्य अन्तर समयाधिक अन्तर्मुहूर्त है। यह नरक से निकल कर तिर्यगर्भ में या मनुष्यगर्भ में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। प्रथमसमय अधिक होने से समयाधिकता कही गई है। कहीं पर केवल अन्तर्मुहूर्त ही कहा गया है। इस कथन में प्रथम समय को भी अन्तर्मुहूर्त में ही सम्मिलित कर लिया गया है, अतः पृथक् नहीं कहा गया है। उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है। प्रथमसमयतिर्यक्योनिक में जघन्य अन्तर एकसमय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण है। ये क्षुल्लक मनुष्यभव ग्रहण के व्यवधान से पुनः तिर्यंचों में उत्पन्न होने की अपेक्षा से हैं। एकभव तो प्रथम-समय कम तिर्यक्-क्षुल्लकभव और दूसरा सम्पूर्ण मनुष्य का क्षुल्लकभवग्रहण है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। उसके व्यतीत होने पर मनुष्यभव व्यवधान से पुनः प्रथमसमयतिर्यंच के रूप में उत्पन्न होने की अपेक्षा है। __ अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक का जघन्य अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है। यह तिर्यक्योनिकक्षुलकभवग्रहण के चरम समय को अधिकृत अप्रथमसमय मानकर उसमें मरने के बाद मनुष्य का क्षुल्लकभवग्रहण और फिर तिर्यंच में उत्पन्न होने के प्रथम समय व्यतीत हो जाने की अपेक्षा जानना चाहिए। उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। देवादि भवों में इतने काल तक भ्रमण के पश्चात् पुनः तिर्यंच में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। मनुष्यों की वक्तव्यता तिर्यक्-वक्तव्यता के अनुसार ही है। केवल वहां व्यवधान तिर्यक्भव का कहना चाहिए। देवों का कथन नैरयिकों के समान ही है। अल्पबहुत्व-प्रथम अल्पबहुत्व प्रथमसमयनैरयिकों यावत् प्रथमसमयदेवों को लेकर कहा गया है जो इस प्रकार है सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य हैं। ये श्रेणी के असंख्येयभाग में रहे हुए आकाश-प्रदेशतुल्य हैं। उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि एक समय में ये अतिप्रभूत उत्पन्न हो सकते हैं। उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येयगुण हैं-व्यन्तर ज्योतिष्कदेव एकसमय में अतिप्रभूततर उत्पन्न हो सकते हैं । उनसे प्रथमसमयतिर्यंच असंख्येयगुण हैं। यहां नरकादि तीन गतियों से आकर तिर्यंच के प्रथमसमय में वर्तमान हैं, वे ही प्रथमसमयतिर्यक हैं, शेष नहीं। अतः यद्यपि प्रतिनिगोद का असंख्येयभाग सदा विग्रहगति के प्रथमसमयवर्ती होता है, तो भी निगोदों के भी तिर्यक्त्व होने से वे प्रथमसमयतिर्यंच नहीं

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