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[जीवाजीवाभिगमसूत्र हैं। वे इनसे संख्येयगुण ही हैं।
दूसरा अल्पबहुत्व अप्रथमसमयनैरयिकों यावत् अप्रथमसमयदेवों को लेकर कहा गया है। वह इस प्रकार है
सबसे थोड़े अप्रथमसमयमनुष्य हैं, क्योंकि ये श्रेणी के असंख्येयभागप्रमाण है। उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि ये अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि के प्रथमवर्गमूल में द्वितीयवर्गमूल का गुणा करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है, उतनी श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हैं, उनके बराबर वे हैं। उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयंगुण हैं, क्योंकि व्यन्तर ज्योतिष्कदेव भी अतिप्रभूत हैं। उनसे अप्रथमसमय तिर्यंच अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिकाय अनन्त हैं।
तीसरा अल्पबहुत्व प्रत्येक नैरयिकादिकों में प्रथमसमय और अप्रथमसमय को लेकर है। वह इस प्रकार है-सबसे थोड़े प्रथमसमयनैरयिक हैं, क्योंकि एक समय में संख्यातीत उत्पन्न होने पर भी स्तोक ही हैं। उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि यह चिरकाल-स्थायी होने से अन्य-अन्य बहुत समयों में अतिप्रभूत उत्पन्न होते हैं। इस तरह तिर्यक्योनिक, मनुष्य और देवों में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि तिर्यक्योनिकों में अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण कहने चाहिए, क्योंकि वनस्पतिजीव अनन्त हैं।
चौथा अल्पबहुत्व प्रथमसमय और अप्रथमसमय नारकादि का समुदितरूप में कहा गया है।
सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य हैं, क्योंकि एक समय में संख्यातीत उत्पन्न होने पर भी स्तोक ही हैं। उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्येयगुण हैं, क्योंकि चिरकालस्थायी होने से वे अतिप्रभूत उपलब्ध होते हैं। उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, एक समय में अतिप्रभूत उत्पन्न होने से। उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येयगुण हैं वयन्तर ज्योतिष्कों में प्रभूत उत्पन्न होने से। उनसे प्रथमसमयतिर्यग्योनिक असंख्येयगुण है, क्योंकि नारकादि तीनों गतियों से आकर जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे अंगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशि के प्रथम वर्गमूल में द्वितीय वर्गमूल का गुणा करने पर जो प्रदेशराशि होती है, उतनी श्रेणीयों में जितनी प्रदेशराशि है, उसके तुल्य हैं। उनसे अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव अनन्त हैं। इस प्रकार अष्टविधसंसारसमापन्नकजीवों का कथन करने वाली सप्तम प्रतिपत्ति पूर्ण हुई।
॥ इति सप्तम प्रतिपत्ति ॥
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