Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 181
________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र १६२] पूर्ण हुई। विवेचन - जो नौ प्रकार के ससारसमापन्नकों का प्रतिपादन करते हैं, उनके मन्तव्य के अनुसार वे नौ प्रकार हैं - १. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, ३. तेजस्कायिक, ४. वायुकायिक, ५. वनस्पतिकायिक, ६. द्वीन्द्रिय, ७. त्रीन्द्रिय, ८. चतुरिन्द्रिय और ९. पंचेन्द्रिय । स्थिति - इनकी स्थिति इस प्रकार है - सबकी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टस्थिति में पृथ्वीका की बावीस हजार वर्ष, अप्काय की सात हजार वर्ष, तेजस्काय की तीन अहरोत्र, वायुकायिक की तीन हजार वर्ष, वनस्पतिकायिकों की दस हजार वर्ष, द्वीन्द्रिय की बारह वर्ष, त्रीन्द्रिय की ४९ दिन, चतुरिन्द्रिय की छह मास और पंचेन्द्रिय की तेतीस सागरोपम हैं । संचिट्ठणा- इन सबकी जघन्य संचिट्ठणा (कायस्थिति) अन्तर्मुहूर्त है । उत्कर्ष से पृथ्वीकाय की असंख्येयकाल ( जिसमें असंख्येय उत्सर्पिणियां अवसर्पिणियां कालमार्गणा से समाविष्ट हैं तथा क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाशों के प्रदेशों के अपहारकालप्रमाण काल समाविष्ट है ।) इसी तरह अप्कायिकों, तेजस्कायिकों और वायुकायिकों की भी यही संचिट्ठणा कहनी चाहिए। वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा अनन्तकाल है । इस अनन्तकाल में अनन्त उत्सर्पिणियां अवसर्पिणियां समाविष्ट हैं तथा क्षेत्र से अनन्तलोकों के आकाशप्रदशों का अपहारकाल तथा असंख्येयपुद्गलपरावर्त समाविष्ट हैं । पुद्गलपरावर्तों का प्रमाण आवलिका के असंख्येयभागवर्ती समयों के बराबर है। द्वीन्द्रिय की संचिट्ठणा संख्येयकाल है। त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की संचिट्ठणा भी संख्येयकाल है । पंचेन्द्रिय की संचिट्ठणा साधिक हजार सागरोपम है। अन्तरद्वार- पृथ्वीकायिक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष अनन्तकाल है । अनन्तकाल का प्रमाण पूर्ववत् जानना चाहिए। पृथ्वीकाय से निकलकर वनस्पति में अनन्तकाल रहने के पश्चात् पुन: पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है । इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय और पंचेन्द्रियों का भी अन्तर जानना चाहिए । वनस्पतिकाय का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है । यह असंख्येयकाल असंख्यात उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी रूप आदि पूर्ववत् जानना चाहिए । अल्पबहुत्वद्वार - सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं। क्योंकि ये संख्येय योजन कोटी कोटी प्रमाण विष्कंभसूची से प्रतरासंख्येय भागवर्ती असंख्येय श्रेणीगत आकाशप्रदेशराशि के बराबर हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनकी विष्कंभसूची प्रभूत संख्येययोजन कोटाकोटी प्रमाण है। उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनकी विष्कंभसूची प्रभूततर संख्येययोजन कोटाकोटी प्रमाण । उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनकी विष्कंभसूची प्रभुततर संख्येययोजन कोटीकोटी प्रमाण है। तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि ये असंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूतासंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूतासंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे अपकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि प्रभूततरासंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततमासंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि ये अनन्त लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। ॥ इति नवविधप्रतिपत्तिरूपा अष्टमी प्रतिपत्ति ॥

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