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[ जीवाजीवाभिगमसूत्र
अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय में जघन्यस्थिति समयकम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृष्ट समयकम बारह वर्ष, अप्रथमसमयत्रीन्द्रियों की जघन्यस्थिति समय कम क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट समयकम ४९ अहोरात्र है। अप्रथमसमयचतुरिन्द्रि की जघन्य स्थिति समयोन क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट समयोन छहमास है । अप्रथमसमयपंचेन्द्रियों की जघन्य स्थिति समयोन क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट समयोन तेतीस सागरोपम है । सर्वत्र समयोनता प्रथमसमय से हीन समझना चाहिए।
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संचिणा (कायस्थिति ) - प्रथमसमयएकेन्द्रिय उसी रूप में एक समय तक रहता है। इसके बाद प्रथमसमय वाला नहीं रहता। इसी तरह प्रथमसमयद्वीन्द्रियादि के विषय में भी समझना चाहिए । अप्रथमसमयएकेन्द्रिय जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण तक रहता है । फिर अन्यत्र कहीं उत्पन्न हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक रहता है। अनन्तकाल का स्पष्टीकरण पूर्ववत् अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीकाल पर्यन्त आदि जानना चाहिए।
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अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय जघन्य समयोन क्षुल्लकभव, उत्कर्ष से संख्येकाल तक रहता है, फिर अवश्य अन्यत्र उत्पन्न होता है । इसी तरह अप्रथमसमयत्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय के लिए भी समझना चाहिए । अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय जघन्य से समयोन क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से अधिक हजार सागरोपम तक रहता है, क्योंकि देवादिभवों में लगातार परिभ्रमण करते हुए उत्कर्ष से इतने काल तक ही पंचेन्द्रिय के रूप रह सकता है।
अन्तरद्वार-प्रथमसमयएकेन्द्रिय का अन्तर जघन्य से समयोन दो क्षुल्लकभव है। वे क्षुल्लकभव द्वीन्द्रियादि भवग्रहण के व्यवधान से पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होने की अपेक्षा से हैं। जैसे कि एक भव तो प्रथमसमय कम एकेन्द्रिय का क्षुल्लकभव और दूसरा भव द्वीन्द्रियादि का सम्पूर्ण क्षुल्लकभव इस तरह. समयोन दो क्षुल्लकभव जानने चाहिए। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल - अनन्तकाल है, जिसका स्पष्टीकरण पूर्व में बताया जा चुका है । इतने काल तक वह अप्रथमसमय है, प्रथमसमय नहीं। क्योंकि द्वीन्द्रियादि में क्षुल्लकभव के रूप में रहकर फिर एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने पर प्रथमसमय में प्रथमसमयएकेन्द्रिय कहा जाता है । अत: उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल कहा गया है।
अप्रथमसमयएकेन्द्रिय का जघन्य अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है । उस एकेन्द्रियभवगत चरमसमय को अधिक अप्रथमसमय मानकर उसमें मरकर द्वीन्द्रियादि क्षुल्लकभवग्रहण का व्यवधान होने पर फिर एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने का प्रथमसमय बीत जाने पर प्राप्त होता है । इतने काल का अप्रथमसमएकेन्द्रिय का अन्तर प्राप्त होता है । उत्कर्ष से संख्येयवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम का अन्तर हो सकता है । द्वीन्द्रियादि भवभ्रमण लगातार इतने काल तक ही सम्भव 1
प्रथमसमयद्वीन्द्रिय का जघन्य अन्तर समयोजन दो क्षुल्लकभवग्रहण है । एक तो प्रथमसमयहीन द्वीन्द्रिय का क्षुल्लकभव और दूसरा सम्पूर्ण एकेन्द्रिय-त्रीन्द्रियादि का कोई भी क्षुल्लकभवग्रहण है । इसी प्रकार प्रथमसमयत्रीन्द्रिय, प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय और प्रथमसमयपंचेन्द्रियों का अन्तर भी जानना चाहिए ।
अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय का जघन्य अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है । वह अन्यत्र क्षुल्लक | भव पर्यन्त रहकर पुन: द्वीन्द्रिय के रूप में उत्पन्न होने का प्रथमसमय बीत जाने पर प्राप्त होता है । उत्कर्ष से