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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
अपर्यवसित (समयानन्तर) क्षीणवेद वाले और सादि-सपर्यवसित उपशान्तवेद वाले। जो सादि-सपर्यवसित अवेदक है उनकी संचिट्ठणा जघन्य एक समय, उपशमश्रेणी को प्राप्त कर वेदोपशमन के एक समय बाद मरण होने पर पुनः सवेदक होने की अपेक्षा से। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त, क्योंकि उपशमश्रेणी का काल इतना ही है। इसके बाद पतन होने से नियमतः सवेदक होता है। __अनादि-अपर्यवसित सवेदक का अन्तर नहीं है, क्योंकि अपर्यवसित होने से उस भाव का कभी त्याग नहीं होता। अनादि-सपर्यवसित सवेदक का भी अन्तर नहीं होता, क्योंकि अनादि सपर्यवसित अपान्तराल में उपशम श्रेणी न करके भावी क्षीणवेदी होता है। क्षीणवेदी के पुनः सवेदक होने की सम्भावना नहीं हैं, क्योंकि उसमें प्रतिपात नहीं होता। सादि-सपर्यवसित सवेदक का अन्तर जघन्य एक समय है, क्योंकि दूसरी बार उपशमश्रेणी प्रतिपन्न का वेदोपशमन के अनन्तर समय में किसी का मरण सम्भव है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि दूसरी बार उपशमश्रेणी प्रतिपन्न का वेदोपशमन होने पर श्रेणी का अन्तर्मुहूर्त काल समाप्त होने पर पुनः सवेदकत्व संभव है।
__ अवेदकसूत्र में सादि-अपर्यवसित अवेदक का अन्तर नहीं है, क्योंकि क्षीणवेद वाला जीव पुनः सवेदक नहीं होता। सादि-सपर्यवसित अवेदक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उपशमश्रेणी की समाप्ति पर सवेदक होने पर पुनः अन्तर्मुहूर्त में दूसरी बार उपशमश्रेणी पर चढ़कर अवेदकत्व स्थिति हो सकती है। उत्कर्ष से अन्तर अनन्तकाल है। वह अनन्तकाल अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्र से अपार्धपुद्गलपरावर्त है, क्योंकि एक बार उपशमश्रेणी प्राप्त कर वहां अवेदक होकर श्रेणी समाप्ति पर पुनः सवेदक होने की स्थिति में इतने काल के अनन्तर पुनः श्रेणी को प्राप्त कर अवेदक हो सकता है।
इनका अल्पबहुत्व पूर्ववत् जानना चाहिये, अर्थात् अवेदक थोड़े और सवेदक अनन्तगुण हैं, वनस्पतिजीवों की अनन्तता की अपेक्षा से।
सकषायिक और अकषायिक जीवों के विषय में यही सवेदक और अवेदक की वक्तव्यता कहनी चाहिए।
२३३. अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता-वाणी चेव अण्णाणी चेव। णाणी णं भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! णाणी दुविहे पण्णत्ते-साईए वा अपजवसिए साईए वा सपजवसिए। तत्थ णं जेसे साईए सपज्जवसिए से जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावट्टिसागरोवमाइं साइरेगाई। अण्णाणी जहा सवेदया।
णाणिस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहूत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं अवडं पोग्गलपरियट्टे देसूणं । अण्णाणियस्स दोण्हवि आइल्लाणं णत्थि अंतरं, साइयस्स सपजवसियस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावट्ठिसागरोवमाइं साइरेगाई।
अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा णाणी, अण्णाणी अणंतगुणा। अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता-सागारोवउत्ता य अणागारोवउत्ता य। संचिट्ठणा