Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 180
________________ नवविधाख्या अष्टम प्रतिपत्ति २२८. तत्थ णं जेते एवमाहंसु-'णवविहा संसारसमावण्णगा जीवा' ते एवमाहंसुपुढविक्काइया, आउकाइया, तेउक्काइया, वाउक्काइया, वणस्सइकाइया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिंदिया, पंचिंदिया। ठिई सव्वेसिं भाणियव्वा। पुढवीक्काइयाणं संचिट्ठणा पुढविकालो जाव वाउक्काइयाणं। वणस्सइकाइयाणं वणस्सइकालो। वेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया संखेज कालं। पंचिंदियाणं सागरोवमसहस्सं साइरेगं। अंतरं सव्वेसिं अणंतकालं। वणस्सइकाइयाणं असंखेजकालं। अप्पावहुगं-सव्वत्थोवा पंचिंदिया, चउरिंदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, तेउक्काइया असंखेजगुणा, पुढविकाइया आउकाइया वाउकाइया विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अणंतगुणा। सेत्तं णवविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। णवविहपडिवत्ति समत्ता। २२८. जो नौ प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का कथन करते हैं, वे ऐसा कहते हैं--१. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, ३. तेजस्कायिक, ४. वायुकायिक, ५. वनस्पतिकायिक, ६. द्वीन्द्रिय, ७. त्रीन्द्रिय, ८. चतुरिन्द्रिय और ९. पंचेन्द्रिय। सबकी स्थिति कहनी चाहिए। पृथ्वीकायिकों की संचिट्ठणा पृथ्वीकाल है, इसी तरह वायुकाय पर्यन्त कहना चाहिए। वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा अनन्तकाल (वनस्पतिकाल) है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की संचिट्ठणा संख्येय काल है और पंचेन्द्रियों की संचिट्ठणा साधिक हजार सागरोपम है। सबका अन्तर अनन्तकाल है। केवल वनस्पतिकायिकों का अन्तर असंख्येयकाल है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वायुकायिक क्रमशः विशेषाधिक हैं और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं। इस तरह नवविध संसारसमापन्नकों का कथन पूरा हुआ। नवविध प्रतिपत्ति नामक अष्टमी प्रतिपत्ति

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