Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[जीवाजीवाभिगमसूत्र विष्कम्भसूची के प्रत्तरासंख्येयभागगत श्रेणियों के आकाश-प्रदेश-राशि के बराबर हैं। उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिकाय अनन्तानन्त हैं।
(२) अपर्याप्तों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय अपर्याप्त हैं, क्योंकि ये एक प्रतर में अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण जितने खण्ड होते हैं, उतने प्रमाण में है। उनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूत अगुंलासंख्येय-भागखण्डप्रमाण हैं । उनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततर प्रतरांगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततम प्रतरांगुलासंख्येयभागखण्ड प्रमाण हैं। उनसे एकेन्द्रिय अपर्याप्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिकाय में अपर्याप्त जीव सदा अनन्तानन्त प्राप्त होते हैं।
(३) पर्याप्तों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े चतुरिन्द्रिय पर्याप्त हैं। क्योंकि चतुरिन्द्रिय जीव अल्पायु वाले होने से प्रभूतकाल तक नहीं रहते हैं, अतः पृच्छा के समय वे थोड़े हैं । थोड़े होते हुए भी वे प्रतर में अंगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। उनसे द्वीन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततर अंगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि स्वभाव से ही वे प्रभूततर अंगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। उनके एकेन्द्रिय पर्याप्त अनन्तगुण है। क्योंकि वनस्पतिकाय में पर्याप्त जीव अनन्त हैं।
(४) पर्याप्तापर्याप्तों का समुदित अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पर्याप्त उनसे संख्येयगुण। एकेन्द्रियों में सूक्ष्मजीव बहुत हैं क्योंकि वे सर्वलोकव्यापी हैं । सूक्ष्मों में अपर्याप्त थोड़े हैं और पर्याप्त संख्येयगुण हैं। द्वीन्द्रिय सूत्र में सबसे थोड़े द्वीन्द्रिय पर्याप्त, क्योंकि वे प्रतर में अंगुल के संख्यातवें भागप्रमाणखण्डों के बराबर हैं। उनसे अपर्याप्त असंख्येगुण हैं, क्योंकि ये प्रतरगत अंगुलसंख्येयभागखण्ड प्रमाण हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियों में पर्याप्त-अपर्याप्त को लेकर अल्पबहुत्व समझना चाहिए।
(५) एकेन्द्रियादि पांचों के पर्याप्त-अपर्याप्त का समुदित अल्पबहुत्व-यह पूर्वोक्त तृतीय और द्वितीय अल्पबहुत्व की भावनानुसार ही समझ लेना चाहिए। मूलपाठ के अर्थ में यह क्रमशः स्पष्टरूप से निर्दिष्ट कर दिया है।
इस प्रकार पांच प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का प्रतिपादन करने वाली चतुर्थ प्रतिपत्ति पूर्ण होती है।