Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 165
________________ १४६ ] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र तं जहा सुहुमणिगोदजीवा य बादरणिगोदजीवा य । सुहुमणिगोदजीवा दुविहा पण्णत्ता, पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । बायरणिगोदजीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । २२२. भगवन्! निगोद कितने प्रकार के है ? गौतम ! निगोद दो प्रकार के हैं--निगोद और निगोदजीव ! भगवन् ! निगोद कितने प्रकार है? गौतम! दो प्रकार के हैं--सुक्ष्मनिगोद और बादरनिगाद ! भगवन! सूक्ष्मनिगोद कितने प्रकार हैं? गौतम! दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त भगवन् ! निगोदजीव कितने प्रकार के हैं? गौतम! दो प्रकार के हैं- सूक्ष्मनिगोदजीव और बादरनिगोदजीव । सूक्ष्मनिगादेजीव दो प्रकार के हैं - पर्याप्तक और अपर्याप्तक बादरनिगोदजीव भी दो प्रकार के है- पर्याप्तक और अपर्याप्तक विवेचन - निगोद जैनसिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है अनन्त जीवों का आधार अथवा आश्रय । वैसे सामान्यतया निगोद सूक्ष्म और साधारण वनस्पति रूप है, तथापि इसकी अलग-सी पहचान है । इसलिए इसके दो प्रकार कहे गये हैं - निगोद और निगोदजीव । निगोद अनन्त जीवों का आधारभूत शरीर है और निगोदजीव एक ही औदारिकशरीर में रहे हुए भिन्न-भिन्न तैजस- कार्मणशरीर वाले अनन्त जीवात्मक हैं।' आगम में कहा है - यह सारा लोक सूक्ष्मनिगोदों से अंजनचूर्ण से परिपूर्ण समुद्गक की तरह ठसाठस भरा हुआ । निगोदों से परिपूर्ण इस लोक में असंख्येय निगोद वृत्ताकार और बृहत्प्रमाण होने से "गोलक" कहे जाते । एसे असंख्येय गोले हैं और एक-एक गोले में असंख्येय निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं । निगोद और निगोदजीव दोनों दो-दो प्रकार के हैं - सूक्ष्मनिगोद और बादरनिगोद । सूक्ष्मनिगोद सारे लोक में रहे हुए हैं और बादरनिगोद मूल, कंद आदि रूप हैं। ये दोनों सूक्ष्म और बादर निगोदजीव दोदो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । - २२३. णिगोदा णं भंते! दव्वट्ट्याए किं संखेज्जा असंखेज्जा अनंता ? गोयमा ! णो संखेज्जा, असंखेज्जा, णो अनंता । एवं पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । सुहुमणिगोदा णं भंते! दव्वट्ट्याए किं संखेज्जा असंखेज्जा अनंता ? गोयमा ! णो संखेज्जा, असंखेज्जा, णो अनंता । एवं पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । एवं बायरावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि णो संखेज्जा, असंखेज्जा, णो अनंता । णिओदजीवा णं भंते! दव्वट्ट्याए किं संखेज्जा, असंखेज्जा अणंता ? गोयमो ! णो संखेज्जा, असंखेज्जा, णो अनंता । एवं पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । एवं सुहुमणिगोदजीवावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । बायरणिगोदजीवावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि । १. तत्र निगोदा जीवाश्रयविशेषा, निगोदजीवा विभिन्न तेजसकार्मणाजीवा एव ।

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