Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 172
________________ सप्तविधाख्या षष्ठ प्रतिपत्ति ] संचिट्ठणा जाननी चाहिए । नैरयिकों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल (अनन्तकाल ) है । तिर्यक्योनिकों को छोड़कर सबका अन्तर उक्त प्रमाण ही कहना चाहिए । तिर्यक्योनिकों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। [ १५३ अल्पबहुत्व-सबसे थोड़ी मानुषी स्त्रियाँ, उनसे मनुष्य असंख्यातगुण, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण, उनसे तिर्यक् स्त्रियाँ असंख्येयगुण, उनसे देव असंख्येयगुण, उनसे देवियां संख्यातगुण और उनसे तिर्यक्योनिक अनन्तगुण हैं । यह सप्तविधि संसारसमापन्नक प्रतिपत्ति समाप्त हुई । विवेचन - सप्तविधप्रतिपत्ति के अनुसार संसारसमापन्नक जीव सात प्रकार के हैं- नैरयिक, तिर्यक्योनिक, तिर्यक्स्त्रयाँ, मनुष्य, मानुषी स्त्रियाँ, देव और देवियां । इन सातों की स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व इस सूत्र में प्रतिपादित है । स्थिति - नैरकि कीस्थिति जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है । तिर्यक्योनिक, तिर्यक्योनिकस्त्रियां, मनुष्य और मनुष्यस्त्रियां, इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है । देवों की स्थिति जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम है । देवियों की स्थिति जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम की है। यह स्थिति अपरिगृहिता ईशानदेवियों की अपेक्षा से है । संचिट्टणा - नैरयिकों की, देवों की और देवियों की जो भवस्थिति है, वही उनकी संचिट्ठणाकायस्थिति जाननी चाहिए। क्योंकि नैरयिक और देव मरकर अनन्तरभव में नैरयिक या देव नहीं होते । तिर्यक्योनिकों की संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त ( इतने समय बाद अन्यत्र उत्पन्न होना संभव है) और उत्कृष्ट अनन्तकाल है। वह अनन्तकाल अनन्त उत्सर्पिणी - अवसर्पिणीप्रमाण (कालमार्गणा की अपेक्षा से) है तथा क्षेत्रमार्गणा की अपेक्षा असंख्येय लोकाकाशप्रदेशों को प्रतिसमय एक-एक के अपहार करने पर जितने समय में वे खाली हों उतनाकाल समझना चाहिए तथा असंख्येय- पुद्गलपरावर्तप्रमाण वह अनन्तकाल है। आवलिका के असंख्येयभाग में जितने समय हैं उतने वे पुदगलपरावर्त जानना चाहिए । तिर्यंचस्त्रियों की संचिट्ठणा (कायस्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है । निरन्तर पूर्वकोटि आयुष्यवालें सात भव और आठवें भव में देवकूरू आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। मनुष्य और मनुष्यस्त्री सम्बन्धी कार्यस्थिति भी यही समझनी चाहिए। अन्तर- नैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। यह नरक से निकल कर तिर्यग् या मनुष्य गर्भ में अशुभ अध्यवसाय से मरकर नकर में उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए। उत्कर्ष से अनन्तकाल है । यह अनन्तकाल वनस्पतिकाल समझना चाहिए। नरक से निकलकर अनन्तकाल वनस्पति में रहकर फिर नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा है । तिर्यक्योनिक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व (दो

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