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षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति]
[१३३ तृतीय अल्पबहुत्व पृथ्वीकायादि के अलग-अलग पर्याप्तों-अपर्याप्तों को लेकर कहा गया है। इसमें सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक अपर्याप्त हैं, उनसे पर्याप्त संख्येयगुण हैं । पृथ्वीकायिकों में सूक्ष्मजीव बहुत हैं, क्योंकि वे सकल लोकव्यापी हैं, उनमें पर्याप्त संख्येयगुण है। इसी तरह अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के सूत्र समझने चाहिए। त्रसकायिकों में सबसे थोड़े पर्याप्त त्रसकायिक हैं
और अपर्याप्तक त्रसकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि पर्याप्त त्रसकायिक प्रतर के अंगुल के संख्येयभागखण्डप्रमाण हैं।
चौथे अल्पबहुत्व में पृथ्वीकायादिकों का पर्याप्त-अपर्याप्तरूप से समुदित अल्पबहुत्व बताया गया है। वह इस प्रकार है-सबसे थोड़े त्रसकायिक पर्याप्त, उनसे त्रसकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, कारण पहले कहा जा चुका है। उनसे तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। उनसे पृथ्वी, अप, वायु के अपर्याप्तक क्रम से विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूत-प्रभूततर-प्रभूततम असंख्येय लोकाकाशप्रदेश-राशि प्रमाण हैं । उनसे तेजस्कायिक पर्याप्त संख्येयगुण हैं, क्योंकि सूक्ष्मों में अपर्याप्तों से पर्याप्त संख्येयगुण हैं। उनसे पृथ्वी, अप्, वायु के पर्याप्त जीव क्रम से विशेषाधिक है। उनसे वनस्पतिकायिक अपर्याप्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि वे अनन्त लोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाण हैं। उनसे वनस्पतिकायिक पर्याप्त संख्येयगुण हैं, क्योंकि सूक्ष्मों में अपर्याप्तकों से पर्याप्त संख्येयगुण हैं । सूक्ष्म जीव सर्व बहु हैं, उनकी अपेक्षा से यह अल्पबहुत्व है।
२१४. सुहुमस्स णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । एवं जाव सुहमणिओयस्स। एवं अपज्जत्तगाणवि पज्जत्तगाणवि जहण्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं।
२१४. भगवन् ! सूक्ष्म जीवों की स्थिति कितनी है?
गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त। इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोदपर्यन्त कहना चाहिए। इस प्रकार सूक्ष्मों के पर्याप्त और अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म-सामान्य की स्थिति बताई गई है। सूक्ष्म जीव दो प्रकार के हैंनिगोदरूप और अनिगोदरूप। दोनों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। जघन्य अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त विशेषाधिक समझना चाहिए, अन्यथा उत्कृष्ट कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। इस प्रकार सूक्ष्मपृथ्वीकाय, सूक्ष्म अप्काय, सूक्ष्म तेजस्काय, सूक्ष्म वायुकाय, सूक्ष्म वनस्पतिकाय और सूक्ष्म निगोद संबंधी छह सूत्र कहने चाहिए।
___ यहां यह शंका की जा सकती है कि सूक्ष्म वनस्पति निगोद ही हैं; सूक्ष्म वनस्पति से उसका भी बोध हो जाता है, तो फिर अलग से निगोदसूत्र क्यों कहा गया है? इसका समाधान यह है-सूक्ष्म वनस्पति तो जीव रूप है और सूक्ष्म निगोद अनन्त जीवों के आधारभूत शरीर रूप है। अतएव भिन्न सूत्र की सार्थकता है। कहा गया है-"यह सारा लोक सूक्ष्म निगोदों से अंजनचूर्ण से पूर्ण समुद्गक (पेटी) की तरह सब ओर से ठसाठस भरा हुआ है। निगोदों से परिपूर्ण इस लोक में असंख्येय निगोद वृत्ताकार