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.. [जीवाजीवाभिगमसूत्र अवधिक्षेत्रादि प्ररूपण
२०२. सोहम्मीसाणेसु देवा ओहिणा केवइयं खेत्तं जाणंति पासंति?
गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेन्जइभागं, उक्कोसेणं अहे जाव रयणप्पभापुढवी, उड्ढं जाव साइं विमाणाइं, तिरियं जाव असंखेज्जा दीवसमुद्दा एवं
सक्कीसाणा पढमं दोच्चं च सणंकुमारमाहिंदा। तच्चं च बंभलंतक सुक्कसहस्सारगा चउत्थिं ॥१॥ आणयपाणयकप्पे देवा पासंति पंचमिं पुडवीं। तं चेव आरणच्चुय ओहिनाणेण पासंति ॥२॥ छट्टि हेट्ठिममज्झिमगेवेज्जा सत्तमिं च उवरिल्ला।
संभिण्णलोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा ॥३॥ २०२. भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव अवधिज्ञान के द्वारा कितने क्षेत्र को जानते हैं -देखते
गौतम! जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र को और उत्कृष्ट से नीची दिशा में रत्नप्रभापृथ्वी तक, ऊर्ध्व दिशा में अपने-अपने विमानों के ऊपरी भाग ध्वजा-पताका तक और तिरछीदिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्रों को जानते-देखते हैं । (इस विषय को तीन गाथाओ में कहा है-)
. शक्र और ईशान प्रथम रत्नप्रभा नरकपृथ्वी के चरमान्त तक, सनत्कुमार और माहेन्द्र दूसरी पृथ्वी शर्कराप्रभा के चरमान्त तक, ब्रह्म और लांतक तीसरी पृथ्वी तक, शुक्र और सहस्रार. चौथी पृथ्वी तक, आणत-प्राणत-आरण-अच्युत कल्प के देव पांचवीं पृथ्वी तक अवधिज्ञान के द्वारा जानते-देखते हैं। अधस्तनौवेयक, मध्यमग्रैवेयक देव छठी नरक पृथ्वी के चरमान्त तक देखते हैं और उपरितनग्रैवेयक देव सातवीं नरकपृथ्वी तक देखते है। अनुत्तरविमानवासी देव सम्पूर्ण चौदह रज्जू प्रमाण लोकनाली को अवधिज्ञान के द्वारा जानते-देखते हैं।
विवेचन-यहां सौधर्म-ईशान कल्प के देवों का अवधिज्ञान जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र बताया है । यहां ऐसी शंका होती है कि अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र वाला जघन्य अवधिज्ञान तो मनुष्य और तिर्यंचों में ही होता है। देवों में तो मध्यम अवधिज्ञान होता है। तो यहां सौधर्म ईशान में जघन्य अवधिज्ञान कैसे कहा गया है? इसका समाधान इस प्रकार है कि यहां जिस जघन्य अवधिज्ञान का देवों में होना बताया है, वह उन सौधर्मादि देवों के उपपातकाल में पारभविक अवधिज्ञान को लेकर बतलाया गया है। तद्भवज अवधिज्ञान को लेकर नहीं। प्रज्ञापना में उत्कृष्ट अवधिज्ञान को लेकर जो कथन किया गया है-वही यहां निर्दिष्ट है। ऊपर मूल में दी गई तीन गाथाओं
१. वेमाणियाणमंगुलभागमसंखं जहन्नओ ओही।
उववाए परभविओ तब्भवओ होइ तो पच्छा ॥१॥