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तृतीय प्रतिपत्ति : सामान्यतया भवस्थिति आदि का वर्णन]
[१२१ का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सौ से नौ सो सागरोपम का होता है।
भगवन् ! इन नैरयिकों यावत् देवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्यगुण हैं, उनसे देव असंख्यगुण हैं और उनसे तिर्यंच अनन्तगुण हैं।
इस प्रकार चार प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का वर्णन पूरा होता है।
विवेचन-देवों के वर्णन के पश्चात् नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों की समुच्चय रूप से स्थिति, संचिट्ठना (कायस्थिति), अन्तर और अल्पबहुत्व का कथन प्रस्तुत सूत्र में किया गया है । नारकों की जघन्यस्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। जघन्यस्थिति रत्नप्रभा नरक के प्रथम प्रस्तर की अपेक्षा से और उत्कृष्टस्थिति सप्तम नरकपृथ्वी की अपेक्षा से समझनी चाहिए।
__ तिर्यग्योनिकों की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। यह देवकुरु आदि से अपेक्षा से है । मनुष्यों की भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति है। देवों की जघन्य दस हजार वर्ष-भवनपति और व्यन्तर देवों की अपेक्षा से और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम विजयादि विमान की अपेक्षा से कही गई है। यह भवस्थिति बताई है।
- संचिट्ठणा का अर्थ कायस्थिति है। अर्थात् कोई जीव उसी-उसी भव में जितने काल तक रह सकता है । नारकों और देवों की भवस्थिति ही उनकी कायस्थिति है। क्योंकि यह नियम है कि देव
नन्तर भव में देव नहीं होता है. नारक भी मरकर अनन्तर भव में नारक नहीं होता। इसलिए कहा गया है कि देवों और नारकों की जो भवस्थिति है, वही उनकी संचिट्ठणा (कायस्थिति) है।
तिर्यग्योनिकों की संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि तदनन्तर मरकर वे मनुष्यादि में उत्पन्न हो सकते हैं। उत्कृष्ट से उनकी संचिट्ठणा अनन्तकाल है, क्योंकि वनस्पति में अनन्तकाल तक जन्ममरण हो सकता है। अनन्तकाल का अर्थ यहां वनस्पतिकाल से है । वनस्पतिकाल का प्रमाण इस प्रकार है-काल से अनन्त उत्सर्पिणियां-अवर्पिणियां प्रमाण, क्षेत्र से अनन्त लोक और असंख्यात पुद्गलवपरावर्त प्रमाण। ये पुद्गलपरावर्त आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, उतने समझने चाहिए।
__ मनुष्य की संचिट्ठणा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त । तदनन्तर मरकर तिर्यग् आदि में उत्पन्न हो सकता है । उत्कृष्ट संचिट्ठणा पृथक्त्वं अधिक तीन पल्योपम है। महाविदेह आदि में सात मनुष्यभव (पूर्वकोटि आयु के) और आठवां भव देवकुरु आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए।
अन्तरद्वार-कोई जीव एक भव से मरकर फिर जितने काल के बाद उसी भव में आता है-वह अन्तर कहलाता है। नैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। नरक से निकलकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तिर्यंच या मनुष्य भव में रहकर पुनः नारक बनने की अपेक्षा से है । कोई
१. "नो नेरइएसु उववज्जइ", "नो देव देवेसु उववज्जइ" इति वचनात् ।