________________
तृतीय प्रतिपत्ति : अवधिक्षेत्रादि प्ररूपण] .
[११९ संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। ईशानदेव भी इन्हीं में उत्पन्न होते हैं । सनत्कुमार से लेकर सहस्रार पर्यन्त के देव संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त गर्भज तिर्यंच और मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं, ये एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते । आनत से लगाकर अनुत्तरोपपातिक देव तिर्यंच पंचेन्द्रियों में भी उत्पन्न नहीं होते, केवल संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं।
२०५. सोहम्मीसाणेसु भंते! कप्पेसु सव्वपाणा सव्वभूया जाव सत्ता पुढविकाइयत्ताए' देवत्ताए देवित्ताए आसणसयण जाव भंडोवगरणत्ताए उववण्णपुव्वा?
हंता, गोयमा! असई अदुवा अणंतखुत्तो। सेसेसु कप्पेसु एवं चेव नवरं नो चेव णं देवित्ताए जाव गेवेज्जगा। अणुत्तरोववाइएसुवि एवं णो चेव णं देवत्ताए देवित्ताए। सेत्तं देवा।
२०५. भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्पों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्व पृथिवीकाय के रूप में, देव के रूप में, देवी के रूप में, आसन-शयन यावत् भण्डोपकरण के रूप में पूर्व में उत्पन्न
हो चुके हैं क्या?
हाँ, गौतम! अनेक बार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं। शेष कल्पों में ऐसा ही कहना चाहिए, किन्तु देवी के रूप में उत्पन्न होना नहीं चाहिए (क्योंकि सौधर्म-ईशान से आगे के विमानों में देवियां नहीं होती)। ग्रैवेयक विमानों तक ऐसा कहना चाहिए। अनुत्तरोपपातिक विमानों में पूर्ववत् कहना चाहिये, किन्तु देव और देवीरूप में नहीं कहना चाहिए। यहां देवों का कथन पूर्ण हुआ।
विवेचन-यहां प्रश्न किया गया है कि सौधर्म देवलोक के बत्तीस लाख विमानों में से प्रत्येक में क्या सब प्राणी, भूत, जीव और सत्व पृथ्वीरूप में, देव, देवी और भंडोपकरण के रूप में पहले उत्पन्न हो चुके हैं? (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को प्राण में सम्मिलित किया है, वनस्पति को भूत में, पंचेन्द्रियों को जीव में और शेष पृथ्वी-अप-तेज-वायु को सत्व में शामिल किया गया है। उत्तर में कहा गया है-अनेकबार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं। सांव्यवहारिक राशि के अन्तर्गत जीव प्रायः सर्वस्थानों में अनन्तबार उत्पन्न हुए हैं। यहां पर अनेक प्रतियों में "पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए" पाठ उपलब्ध होता है । परन्तु वृत्तिकार के अनुसार यह संगत नहीं है । क्योंकि वहां तेजस्काय का अभाव है। वृत्तिकार के अनुसार "पृथ्वीकाइयतया देवतया देवीतया" इतना ही उल्लेख संगत है। आसन, शयन यावत् भण्डोपकरण आदि पृथ्वीकायिक जीव में सम्मिलित हैं।
१. जाव वणस्सइकाइयत्ताए' पाठ कई प्रतियों में है, परन्तु वृत्तिकार ने उसे उचित नहीं माना है। क्योंकि वहां तेजस्काय
संभव ही नहीं है। २. प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूताश्च तरवः स्मृताः।
जीवाः पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सत्वा उदीरिता। -वृत्ति