Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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वैमानिक उद्देशक
वैमानिक-वक्तव्यता
१९८. कहि णं भंते! वेमाणियाणं विमाणा पण्णत्ता, कहि णं भंते! वेमाणिया देवा परिवसंति? जहा ठाणपए सव्व भाणियव्वं नवरं परिसाओ भाणियव्वाओ जाव अच्चुए, अन्नेसिं च बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं देवाण य देवीण य जाव विहरंति।
१९८. भगवन ! वैमानिक देवों के विमान कहां कहे गये हैं? भगवान् ! वैमानिक देव कहां रहते हैं? इत्यादि वर्णन जैसा प्रज्ञापनासूत्र के स्थानपद में कहा है, वैसा यहां करना चाहिए। विशेष रूप में यहां अच्युत विमान तक परिषदाओं का कथन भी करना चाहिए यावत् बहुत से सौधर्मकल्पवासी देव और देवियों का आधिपत्य करते हुए सुखपूर्वक विचरण करते हैं। . विवेचन-प्रस्तुतं सूत्र में प्रज्ञापनासूत्र के स्थानपद की सूचना की गई है। विषय की स्पष्टता के लिए उसे यहां देना आवश्यक है । वह इस प्रकार है
"इस रत्नप्रभापृथ्वी के बहुसमरणीय भूभाग से ऊपर चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र तथा तारारूप ज्योतिष्कों के अनेक सौ योजनं, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटि योजन ऊपर दूर जाकर सौधर्म-ईशान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लान्तक-महाशुक्रसहस्रार-प्राणत-आरण-अच्युत-ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में वैमानिक देवों के चौरासी लाख सत्तानवै हजार तेवीस विमान एवं विमानावास हैं। ये विमान सर्वरत्नमय स्फटिक के समान स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, चिकने बनाये हुए, रजरहित, निर्मल, पंकरहित, निरावरण कांतिवाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतसहित प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, रमणीय, रूपसम्पन्न और अप्रतिम सुन्दर हैं। उनमें बहुत से वैमानिक देव निवास करते हैं। वे इस प्रकार हैं-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलौक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तरोपपातिक देव।" ।
___ वे सौधर्म से अच्युत तक के देव क्रमशः १. मृग, २. महिष, ३. वराह, ४. सिंह, ५. बकरा (छगल), ६. दर्दुर ७. हय, ८. गजराज, ९. भुजंग, १०. खड्ग (गेंडा), ११. वृषभ और १२. विडिम के प्रकट चिह्न से युक्त मुकुट वाले, शिथिल और श्रेष्ठ मुकुट और किरीट के धारक, श्रेष्ठ कुण्डलों से उद्योतित मुख वाले, मुकुट के कारण शोभायुक्त, रक्त आभा युक्त, कमल-पत्र के समान गोरे, श्वेत, सुखद वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श वाले, उत्तम वैक्रिय-शरीरधारी, प्रवर वस्त्र-गन्ध-माल्य-अनुलेपन के धारक, महर्द्धिक, महाद्युतिमान, महायशस्वी, महाबली, महानुभाग, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले हैं । कड़े और बाजूबंदों से मानो भुजाओं को उन्होंने स्तब्ध कर रखी है, अगंद, कुण्डल आदि आभूषण