Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय प्रतिपत्ति : 'पुष्करोदसमुद्र की व्यक्तव्यता] उसकी परिधि है। उसके सब ओर एक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड है । पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन कहना चाहिए। द्वार, द्वारों का अन्तर, प्रदेश-स्पर्शना, जीवोत्पत्ति आदि सब पूर्ववत् कहना चाहिए।
भगवन् ! वरूणवरद्वीप, वरूणवरद्वीप क्यों कहा जाता हैं ?
गौतम ! वरूणवरद्वीप में स्थान-स्थान पर यहां-वहां बहुत सी छोटी-छोटी बावड़िया यावत् बिल -पक्तियां हैं, जो स्वच्छ हैं, प्रत्येक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से परिवेष्टित है तथा श्रेष्ट वारूणी के समान जल से परिपूर्ण हैं यावत् प्रासादिक दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप हैं।
__ उन छोटी-छोटी बावड़ियों यावत् बिलपंक्तियों में बहुत से उत्पातपर्वत यावत् खडहडग हैं जो सर्वस्फटिकमय हैं, स्वच्छ हैं आदि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। वहां वरूण और वरूणप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं, इसलिए वह वरूणवरद्वीप कहलाता है। अथवा वह वरूणवरद्वीप शाश्वत होने से उसका यह नाम भी नित्य और अनिमित्तिक है। वहां चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिष्कों की संख्या संख्यातसंख्यात कहनी चाहिए यावत् वहां संख्यात कोटीकोटी तारागण सुशोभित थे, हैं और होंगे।
१८०. (इ) वरूणवरं णं दीवं वरूणोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव चिट्ठइ। समचक्कवालसंठाणसंठिए, नो विसमचक्कवालसंठाणसंठिए। तहेव सव्वं भाणियव्वं । विक्खंभपरिक्खेवो संखिज्जाइं जोयणसयसहस्साइं पउमवरवेइया वणसंडे दारंतरे य पएसा जीवा अट्ठो। गोयमा ! वारूणोदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहाणामए चंदप्पभाइ वा मणिसिलागाइ वा वरसीधु-वरवारूणी इ वा पत्तासवेइ वा पुफ्फासवेइ वा चोयासवेइ वा फलासवेइ वा महुमेरएइ वा जाइप्पसन्नाइ वा खजूरसारेइ वा मुद्दियासारेइ वा कापिसायणाइ वा सुपक्कखोयरसेइ वा पभूयसंभारसंचिया पोसमाससतभिसयजोगवत्तिया निरूवहतमविसिट्ठदिनकालोवयारा सुधोया उक्कोसगमयपत्ता अट्ठपिट्ठनिट्ठिया जंबूफलकालिवरप्पसन्ना आसला मासला पेसला ईसीओट्ठावलंबिणी ईसीतंबच्छिकरणी ईसीवोच्छेया कडुआ, वण्णेणं उववेया, गंधेणं उववेया, रसेणं उववेया फासेणं उववेया आसायणिज्जा विस्सायणिज्जा पीणणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सव्विदियगायपल्हायणिज्जा, भवे एयारूवे सिया ? ।
णो इणढे समढे वारूणस्स णं समुद्दस्स उदए एत्तो इट्ठतरे जाव उदए।से एएणडेणं एवं वुच्चइ०। तत्थ णं वारूणि-वारूणकंता देवा महिड्डिया जाव परिवसंति, से एएणद्वेणं जाव णिच्चे। १. प्रस्तुत पाठ में प्रतियों में बहुत पाठभेद है । वृत्तिकार के व्याख्यात पाठ को मान्य करते हुए हमने मूलपाठ दिया है।
अन्य प्रतियों में अट्ठपट्ठिणिट्ठिया' के आगे ऐसा पाठ भी है__(अट्ठपिट्ठपुट्ठा मुरवइंतवरकिमंदिण्णकद्दमा कोपसन्ना अच्छा वरवारूणी अतिरसा जंबूफलपुट्ठवण्णा सुजाता ईसिउट्ठावलंबिणी अहियमधुरपेज्जा ईसीसिरत्तणेत्ता कोमलकवोलकरणी जाव आसादिया विसादिया
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