Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय प्रतिपत्ति : कालोदसमुद्र की वक्तव्यता]
[३७ गौतम ! कालोदसमुद्र समचक्रवाल रूप से संस्थित है, विषमचक्रवाल रूप से नहीं। भगवन् ! कालोदसमुद्र का चक्रवालविष्कंभ कितना है और उसकी परिधि कितनी है ?
गौतम ! कालोदसमुद्र आठ लाख योजन का चक्रवालविष्कंभ से है और इक्यानवै लाख सत्तर हजार छह सौ पांच योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है। (एक हजार योजन उसकी गहराई है।)
वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से परिवेष्टित है। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। भगवन् ! कालोदसमुद्र के कितने द्वार हैं ? गौतम ! कालोदसमुद्र के चार द्वार हैं -विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित। भगवन् ! कालोदसमुद्र का विजयद्वार कहां स्थित हैं ?
गौतम ! कालोदसमुद्र के पूर्वदिशा के अन्त में और पुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध के पश्चिम में शीतोदा महानदी के ऊपर कालोदसमद्र का विजयद्वार है। वह आठ योजन का ऊँचा है आदि प्रमाण पूर्ववत् यावत् राजधानी पर्यन्त जानना चाहिए।
भगवन् ! कालोदसमुद्र का वैजयंद्वार कहां हैं ?
गौतम ! कालोदसमुद्र के दक्षिण पर्यन्त में, पुष्करवरद्वीप के दक्षिणार्ध भाग के उत्तर में कालोदसमुद्र का वैजयंतद्वार है।
भगवन् ! कालोदसमुद्र का जयन्तद्वार कहां है?
गौतम ! कालोदसमुद्र के पश्चिमान्त में पुष्करवरद्वीप के पश्चिमार्ध के पूर्व में शीता महानदी के ऊपर जयंत नाम का द्वार है।
भगवन् ! कालोदसमुद्र का अपराजितद्वार कहां है।
गौतम ! कालोदसमुद्र के उत्तरार्ध के अन्त में और पुष्करवरद्वीप के उत्तरार्ध के दक्षिण में कालोदसमुद्र का अपराजितद्वार है। शेष वर्णन पूर्वोक्त जम्बूद्वीप के अपराजितद्वार के समान जानना चाहिए। (विशेष यह है कि राजधानी कालोदसमुद्र में कहनी चाहिए।)
भगवन् ! कालोदसमुद्र के एक द्वार से दूसरे का अपान्तराल अन्तर कितना है ?
गौतम ! बावीस लाख बानवै हजार छह सौ छियालीस योजन और तीन कोस का एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर है। (चारों द्वारों की माटाई १८ योजन कालोदसमुद्र की परिधि में से घटाने पर ९१७०५८७ होते हैं । इनमें ४ का भाग देने पर २२९२६४६ योजन और तीन कोस का प्रमाण आ जाता है।)
१. उक्तं च-अद्वैव सयसहस्सा कालोओ चक्कवालओ रुंदो।
जोयणसहस्समेगं ओगाहे ण मुणे यव्वो ॥१॥ इगनउइसयसहस्सा हवंति तह सत्तरि सहस्सा य। छच्च सया पंचहिया कालोयहिपरिरओ एसो॥२॥