Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पृष्ठ 185 186 186 160 161 ..162 .163 or '' 166 से 206 166 167 202 207 से 323 207 196-203 211 सूत्रांक 168-166 शीतोष्ण-परीषहरूप उपसर्ग के समय मन्द साधक की दशा 170-171 याचना : आक्रोश परीषह-उपसर्ग 172 वध परीषह रूप उपसर्ग ..173-175 आक्रोश परीषह के रूप में उपसर्ग . . . . . दंश-मशक और तृणस्पर्श परीषह के रूप में उपसर्ग - 177 के शलोच और ब्रह्मचर्य के रूप में उपसर्ग 178-180 वध-बन्ध परीषह के रूप में उपसर्ग उपसगों से आहत कायर साधकों का पलायन द्वितीय उद्देशक अनुकूल उपसर्ग सूक्ष्म संग रूप एवं दुस्तर -183-165 स्वजन संगरूप उपसर्ग : विविध रूपों में भांग निमंत्रण रूप उपसर्ग : विविध रूपों में तृतीय उद्देशक 204-206 आत्म-संवेदनरूप उपसर्ग : अध्यात्म विषाद के रूप में .208-210 आत्म-संवेदनरूप उपसर्ग विजयी साधक 211-213 उपसर्ग : परवादिकृत आक्षेप के रूप में 214-223 परवादि कृत आक्षेप निवारण : कीन क्यों और कैसे करें ... 224 उपसर्ग-विजय का निर्देश - चतुर्थ उद्देशक 225-226 महापुरुषों की दुहाई देकर संयम भ्रष्ट करने वाले उपसर्ग 230-232 सुख से ही सुख प्राप्ति : मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग 233-237 अनुकूल कुतर्क से वासना तृप्ति रूप सुखकर उपसर्ग 238-236 कौन पश्चात्ताप करता है कौन नहीं ? 240-241 नारी संयोग रूप उपसर्ग : दुष्कर, दुस्तर एवं सुतर 242-246 उपसर्ग विजेता साधु : कौन, और कैसे ? स्त्री परिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन : पृष्ठ 247 से 285 प्राथमिक-परिचय प्रथम उद्देशक 247-277 स्त्री-मंगरूप उपसर्ग : विविध रूप : सावधानी को प्रेरणाएँ द्वितीय उद्देशक . . 278-265 स्त्री-संग से भ्रष्ट साधकों की विडम्बना उपसंहार 223 224 से 246 224 228 234 238 236 241 247-246 250 से 272 251 272 से 285 272 281 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org