Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 35-39 मानि का मन का फिर भी मनुष्य जीवन, मान, वंदना प्रादि हेतुओं में प्रासक्त हुए विविध प्रकार के शस्त्रों से अग्निकाय का समारंभ करते हैं। और अग्निकाय का समारंभ करते हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणों/जीवों की भी हिंसा करते हैं / 37. मैं कहता हूँ--- - बहुत से प्राणी-पृथ्वी, तृण, पत्र, काप्ठ, गोबर और कूड़ा-कचरा आदि के आश्रित रहते हैं। कुछ सँपातिम/उड़ने वाले प्राणी होते हैं (कीट, पतंगे, पक्षी आदि) जो उड़तेउड़ते नीचे गिर जाते हैं। ये प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात (शरीर के संकोच) को प्राप्त होते हैं। शरीर का संघात होने पर अग्नि की ऊष्मा से मूच्छित हो जाते हैं / मूच्छित हो जाने के बाद मृत्यु को भी प्राप्त हो जाते हैं। विवेचन–सूत्र 34-35 का अर्थ पिछले 23-24 सूत्र की तरह सुबोध ही है / अग्निकाय के शस्त्रों का उल्लेख नियुक्ति में इस प्रकार है-- 1. मिट्टी या धूलि (इससे वायु निरोधक वस्तु केबल आदि भी समझना चाहिए), 2. जल, 3. आई वनस्पति, 4. म प्राणी, 5. स्वकाय शस्त्र--एक शस्त्र है, 6. परकाय शस्त्र--जल आदि, 7. तदुभय मिश्रित-जैसे तुष-मिश्रित अग्नि दूसरी अग्नि का शस्त्र है, 8. भावशस्त्र---असंयम / 38. एत्थ सत्थं समारभमाणस्य इच्चेते आरंभा अपरिष्णाता भनति / एल्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भनति। 39. 'जस्स एते अगणिकम्मसमारंभा परिण्णाता भगति से हु मुणो परिणायकम्मे त्ति बेमि। ॥चउत्थो उद्देसओ समत्तो॥ 38. जो अग्निकाय के जीवों पर शस्त्र प्रयोग करता है, वह इन प्रारंभ समारंभ क्रियाओं के कटु परिणामों से अपरिज्ञात होता है, अर्थात् वह हिंसा के दु:खद परिणामों से छूट नहीं सकता है। ___ जो अग्निकाय पर शस्त्र-समारंभ नहीं करता है, वास्तव में वह प्रारंभ का ज्ञाता अर्थात् हिमा से मुक्त हो जाता है। 39. जिसने यह अग्नि-कर्म-समारंभ भली भांति समझ लिया है, वही मुनि है. वही परिज्ञात-कर्मा (कर्म का ज्ञाता और त्यागी) है।। -- ऐसा मैं कहता हूँ। // चतुर्थ उद्देशक समाप्त // सूत्र 38 के बाद कुछ प्रतियों में यह पाठ मिलता है। "त परिणाय मेहावी व सयं अगणिसत्थं समारभेज्जा, णेवऽपणे हिं अगणि सस्थं समारभावेज्जा, अगणि सत्थं समारभंते वि अण्णे ण समजा. गेज्जा / " यह पाठ चूर्णिकार तथा टीकाकार ने मूलरूप में स्वीकृत किया है, ऐसा लगता है, किन्तु कुछ प्रतियों में नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org