Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 06
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 1265
________________ विवाहपण्णत्ति 1241 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवाहपण्णत्ति शतमः। 'कुंडग्गामे त्ति ब्राह्मणकुण्डग्रामविषयस्त्रयस्त्रिंशत्तमः / 'पुरिसे' त्ति पुरुषाः पुरुषं घ्नन्तीत्यादिवक्तव्यतार्थश्चतुस्त्रिंशत्तम इति। भ०६ श० / 1 उ०।"अस्मन्मनोव्योमतलप्रचारिणः, श्रीपार्श्वसूर्यस्य विसर्पितजसा। दुर्द्धष्यसंमोहतमोपसारणाद्विभक्तमेवं नवमं शतं मया।।१।।" भ०६० 34 उ०। व्याख्यातं नवमं शतम् / अथ दशम, व्याख्यायते-अस्यायमभिसम्बन्धोऽनन्तरशते जीवादयोऽर्थाः प्रतिपादिता इहापित एव प्रकारान्तरेण प्रतिपाद्यन्त इत्येवं सम्बन्धस्यास्योद्देशकार्थ संग्रहगाथेयम्दिसि संवुडमणगारे, आइड्डी सामहत्थि देवि सभा। उत्तर अंतरदीवा, दसमम्मि सयम्मिचोत्तीसा / / 1 / / 'दिसी' त्यादि 'दिसि' त्ति दिशमाश्रित्य प्रथम उद्देशकः / 'संदुङमणगारे' त्ति संवृतानगारविषयो द्वितीयः। 'आइड्डि', ति आत्मया देवो देवी वा वासान्तराणि व्यतिक्रामेदित्याद्यर्थाभिधायकस्तृतीयः / 'सामहत्थि' त्ति श्यामहस्त्यभिधानश्रीमन्महावीरशिष्यप्रश्नप्रतिवद्धश्वतुर्थः / 'देवि त्ति / चमराधग्रमहिषीप्ररूपणार्थः पञ्चमः। 'सम' त्ति सुधर्मसभाप्रतिपादनार्थः षष्ठः / 'उत्तरअंतरदीव' त्ति उत्तरस्यां दिशि ये अन्तरद्वीपास्तत्प्रतिपादनार्था अष्टाविंशतिरुद्देशका एवं चादितो दशमे शते चतुस्विंशदुद्देशका भवन्तीति। भ०१श०१ उ०।"इति गुरुजनशिक्षापार्श्वनार्थप्रसादप्रसृततरपतत्रद्वन्द्वसामर्थ्यमाप्य / दशमशतविचारक्ष्माधरार येऽधिरूढः, शकुनिशिशुरिवाहं तुच्छबोधाङ्ग कोऽपि // 1 // " भ०१० श०३४ उ०। व्याख्यातं दशमं शतम् / अथैकादशं व्याख्यायते, अस्य चायमभिसम्बन्धः- अनन्तरशतस्यान्तेऽन्तरद्वीपा उक्तास्ते च वनस्पतिबहुला इति वनस्पतिविशेषप्रभृतिपदार्थस्वरूपप्रतिपादनायैकादशं शतं भवतीत्येवं सम्बद्धस्यास्योद्देशकार्थ-संग्रहगाथाउप्पल सालु पलासे, कुंभी नालीय पउम कन्नीय। नलिण सिव लोग काला, लंभिय दस दो य एक्कारे / / 1 / / भ०११०१ उ०। (व्याख्या 'वणप्फई' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) "एकादशशतमेवं, व्याख्यातमबुद्धिनाऽपि यन्मयका। हेतुस्तत्राग्रहिता, श्रीवागदेवीप्रसादो वा // 1 // " भ०११ श०१२ उ०। व्याख्यातं विविधार्थमेकादशं शतम्। अथ तथाविधमेष द्वादशमारभ्यते तस्य चोद्देशकार्थाभिधानार्था गाथेयम्संखे जयंति पुढवी, पोग्गल अइवाय राहु लोगे य। नागे य देव आया, वारसमसए दसुद्देसा // 1 // 'संखे' इत्यादि, शङ्खश्रमणोपासकविषयः प्रथम उद्देशकः। 'जयंति' त्ति जयन्त्यभिधानश्राविकाविषयो द्वितीयः 1 'पुढवि' ति रत्नप्रभापृथिवीविषयस्तृतीयः। 'पुग्गल' त्ति पुगलविषयश्चतुर्थः / अइवाए' त्ति प्राणातिपातादिविषयः पञ्चमः। 'राहु' त्ति राहुवक्तव्यतार्थः षष्ठः। 'लोगे य'त्ति लोकविषयस्सप्तमः / 'नागे य' त्ति सर्पवक्तव्यतार्थोऽष्टमः। 'देव' त्ति देवभेदविषयो नवमः। 'आय' त्ति आत्मभेदनिरूपणार्थो दशम इति। भ०१२ श०१ उ०। "गम्भीररूपस्य महोदधेर्यत, पोतः परम्पारमुपैति मक्षु / गतावशक्तोऽपि निजप्रकृत्या, कस्याप्यदृष्टस्य विजृम्भितं तत् // 1 // " भ०१२ 10 10 उ०। व्याख्यातं द्वादशं तत्र चानेकधा जीवादयः पदार्था उक्तास्त्रयोदशेऽपि एव भङ्गयन्तरेणोच्यन्त इत्येवं सम्बद्धमिदं व्याख्यायते / तत्र पुररियमुद्देशकसंग्रहगाथापुढवी देवमणंतर-पुढवी आहारमेव उववाए। भासा कम्मऽणगारे, केयाघडिया समुग्धाए||१|| 'पुढवी' इत्यादि, 'पुढवी' ति नरकपृथिवीविषयः प्रथमः। 'देव' त्ति देवप्ररूपणार्थो द्वितीयः। अणंतर' त्ति अनन्तराहारा नारका इत्याद्यर्थप्रतिपादनपरस्तृतीयः। 'पुढवी तिपृथिवीगतवक्तव्यताप्रतिबद्धश्चतुर्थः / 'आहारे' त्ति नारकाद्याहारप्ररूपणार्थः पञ्चमः / 'उववाए' त्ति नारकाधुपपातार्थः षष्ठः। भास' त्ति भाषार्थः सप्तमः। 'कम्म' त्ति कर्मप्रकृतिप्ररूपणार्थोऽष्टमः / 'अणगारे केयाघडिय' त्ति अनगारोभावितात्मा लब्धिसामर्थ्यात् 'केयाघडिय' त्ति रज्जुबद्धघटिकाहस्तः सन् विहायसि वृजेदित्याद्यर्थप्रतिपादनार्थो नवमः, 'समुग्धाए' त्ति समुद्घातप्रतिपादनार्थो दशम इति / भ० 13 श०१ उ०। "त्रयोदशस्यास्य शतस्य वृत्तिः, कृता मया पूज्यपदप्रसादात्। नान्धकारे विहितोद्यमोऽपि, दीपं विना पश्यति वस्तुजातम्" ||1|| भ०१३ 2010 उ०। व्याख्यातं विचित्रार्थं त्रयोदशतम्। अथ विचित्रार्थमेव क्रमायातं चतुर्दशमारम्यते, तत्र चदशोद्देशकास्तत्र सङ्ग्रहगाथा चेयम्चर उम्माद सरीरे, पोग्गल अगिणी तहा किमाहारे। संसिट्ठमंतरे खलु, अणगारे केवली चेव / / 1 / / 'चर उम्मायसरीरे' त्यादि तत्र 'चर' त्ति सूचामात्रत्वादस्य चरमशब्दोपलक्षितोऽपि चरमः प्रथम उद्देशकः। 'उम्माय' त्ति उन्मादार्थाभिधायकत्वादुन्मादो द्वितीयः। 'सरीरे' त्ति शरीरशब्दोपलक्षितत्वाच्छरीरस्तृतीयः / 'पुग्गल' त्ति पुद्गलार्थाभिधायकत्वात् पुद्रलश्चतुर्थः / 'अगिणि' त्ति अग्निशब्दोपलक्षितत्वादग्निः पञ्चमः / 'किमाहारे' त्ति किमाहारा इत्येवंविधप्रश्नोपलक्षितत्वात्किमाहारः षष्ठः। 'संसिट्ठ' त्ति "चिरसंसिट्ठो सि गोयम''त्ति इत्यत्रपदेयः संश्लिष्टशब्दस्तदुपलक्षितत्वात्संश्लिष्टोद्देशकः सप्तमः / 'अंतरे' त्ति पृथिवीनामन्तराभिधायकत्वादन्तरोद्देशकोऽष्टमः / 'अणगारे' त्ति अणगारेति पूर्वपदत्वादनगारोद्देशको नवमः। 'केवलि' त्ति केवलीतिप्रथमपदत्वात्केवली दशमोद्देशक इति / भ०१४ श०१ उ० / "चतुर्दशस्येह शास्य वृत्तिर्येषां प्रभावेण कृता मयैषा / जयन्तु ते पूज्यजना जनानां, कल्याणसंसिद्धिपरस्वभावाः / / 1 / / " भ०१४ श०१० उ०। व्याख्यातं चतुर्दशं शतम् / अथ पञ्चदशममारभ्यते, तस्य चायं पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः-- अनन्तरशते के वली रत्नप्रभादिकं वस्तु जानातीत्युक्तं तत्परिज्ञानं चात्मसंबन्धि यथा भगवता श्रीमन्महावीरेण गौतमायाऽविर्भावितं गोशालकस्य स्वशिष्या

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