Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 06
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
View full book text
________________ वीर 1374 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर सो भणति-किं इमाओऽवि मए मारिआओ लोयमारिआओ दरिसेइ, ताहे खुड्डएण नायं-वियाले आलोहिइ त्ति, सो आवस्सए आलोएत्ता उवविट्टो, खुडुओ चिंतेइ-लूणं से विस्सरिय, ताहे सारिअरुट्टो आहणामि त्ति उद्धाइओ खुड्डगस्स, तत्थ थमे आवडिओ मओ विराहियसामण्णो जोइसिएसु उववण्णो, ततो चुओकणगखले पंचण्ह तावसरयाण कुलवइस्सतावसीए उदरे आयाओ, ताहे दारगोजाओ, तत्थ से "कोसिओ' त्ति नाम कयं, सो य अतीव तेण सभावेण चंडकोधो, तत्थ अन्नेऽवि अस्थि कोसिया तस्स'चंडकोसिओ' ति नाम कयं, सो कुलवती मओ, ततोय सो कुलवई जाओ, सो तत्थ वणसंडे मुच्छिओ, तेसिं तावसाण ताणि फलाणि न देइ, ते अलभंता गया दिसो दिसंजोऽवि तत्थ गोवालादी एतितं पि हंतुंधाडेइ, तस्स अदूरे सेयंबिया नाम नयरी, ततो रायपुत्तेहि आगंतूर्ण विरहिए पडिनिवेसेण भग्गो विणासिओ य, तस्स गोवालएहिं कहियं, सो कंटियाणं, गओ, ताओ, छड्डुत्ता परसुहत्थो गओ रोसेण धमधमंतो, कुमारेहिं दिट्ठो एतओ, तंदटूण पलाया, सोऽवि कुहाडहल्थो पहावेत्ता खड्डे आवडिऊण पडिओ, सो कुहाडो अभिमुहो ठिओ, तत्थ से सिर दो भाए कय, तत्थ मओ तम्मि चेव वणसंडे दिट्टिविसो सप्पो जाओ, तेण रोसेण लोभेण य तं रक्खइ वणसंड, तओ ते तावसा सव्वे दड्ढा, जे अदडगा तेनट्टा, सो तिसझवणसंड परियचिऊणं जं सउणगमवि पासइ तं डहइ, ताहे सामी तेण दिट्ठो, ततो आसुरुत्तो, ममं न याणसि ? सूरं णिज्झाइत्ता पच्छा सामि पलोएइ, सोन डज्झइ जहा अण्णे। एवं दो तिणि वारा, ताहे गंतूण डसइ, डसित्ता अवक्कमइ-मा मे उवरि पडिहि त्ति, तह विन मरइ, एव तिणि वारे, ताहे पलेएतो अच्छति अमरिसेण, तस्स भगवओ एवं पेच्छतस्स ताणि विसभरियाणि अच्छीणि विज्झाइयाणि सामिणो कंतिसोम्मयाए। ताहे सामिणा भणिअं-उवसम भो चंडकोसिया ! ताहे तस्स ईहापोहमग्गणगवेसणं करेंतस्स जातीसरणं समुप्पण्णं, ताहे तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेत्ता भत्तं पच्चक्खाइ मणसा। तित्थगरोजाणइ, ताहे सो विले तुडं छोद ठिओ, माहं रुट्ठो संतो लोग मारेह, सामी तस्स अणुकंपाए अच्छइ, सामि दह्ण गोवालवच्छवाला अल्लियंति, रुक्खेहिं आवरेत्ता अप्पाणं तस्स सप्पस्स पाहाणे खिवंति, न चलति त्ति अल्लीणो कट्ठहिं घट्टिओ तह वि न फंदति त्ति / तेहिं लोगस्स सिट्ट, तो लोगो आगंतूण सामि वदित्ता तं पि य सप्पं महेइ। अण्णाओ य घयविक्किणियाओ त सप्प मक्खेति, फरुसिंति, सो पिवीलियाहिं गहिओ, तं वेयणं अहियासेत्ता अद्धमासस्स मओ सहस्सारे उववण्णो। अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहउत्तरवाचालन्तर-वणसंडे चंडकोसिओ सप्पो। न हे चिंता सरणं, जोइसकोवाऽहि जाओऽहं / / 467 // उत्तरवाचालान्तरवनखण्डे चण्डकौशिकः सर्पः न ददाह चिन्ता स्मरण ज्योतिष्कः क्रोधाद् अहिजोतोऽहमिति, अक्षरगमनिका स्वबुद्धया कार्येति // 4671 अनुक्तार्थे प्रतिपादयन्नाहउत्तरवायाला ना-गमेण खीरेण भोयणं दिव्वा। सेयवियाएँ पएसी, पंचरहे निजरायाणो।।४६८|| उत्तरवाचाला नागसेनः क्षीरेण भोजन दिव्यानि श्वेताम्ब्यां प्रदेशी पञ्चरथैः नैयका राजनः- नैयका गोत्रतः, प्रदेशे निजा इत्यपरे। शेषो भावार्थः कथानकादवसेयः। तचेदम्-'तओ सामी उत्तरवाचालं गओ, तत्थ पक्खक्खमणपारणते अतिगओ, तत्थ नागसेणण गिहवइणा खीरभोयणेण पडिलाभिओ, पंच दिव्वाणि पाउब्भूयाणि ततो सेयंबियं गओ, तत्थपदेशी राया समणोवासओ भगवओ महिमं करेइ, तओ भगवं सुरभिपुरं वचइ तत्थंतराए णेजगा रायाणो पंचहिं रथेहिं एन्ति, पएसिरण्णो पासे, तेहिं तत्थ सामी वदिओ पूइओ य / ततो सामी सुरभिपुरं गओ, तत्थ गंगा उत्तरियव्वा, तत्थ सिद्धजत्तो नाम नाविओ, खेमल्लो नाम सउणजाणओ, तत्थ य णावाए लोगो विलग्गइ, कोसिएण महासउणेण वासियं। कोसिओ नाम उलूको। ततो खेमिलेण भणियं-जारिस सउणेणं भणियं तारिसं अम्हेहिं मारणंतियं पावियव्यं, किं पुण? इमस्स महरिसिस्स पभावेण मुचिहामो। सायणावा पहाविया सुदाढेण य णागकुमारराइणा दिहो, भयवं णावाए ठिओ। तस्स कोवो जाओ। सो य किर जो सो सीहो वासुदेवत्तणे मारिओ सो संसारं भमिऊण सुदाढो नागो जाओ। सो संवट्टगवाय विउव्वेत्ता णावं ओबोलेउइच्छइ, इओ य कंबलसबलाण आसणं चलिय। (आव०) (कंबलशबलयोवृत्तम् ‘कंबल' शब्दे तृतीयभागे 176 पृष्ठे गतम्।) णागकुमारेसु उववण्णा, (ते) ओहिं पउंजंति० जाव पेच्छंति तित्थगरस्स उवसग्गं कीरमाणं, ताहे तेहिं चिंतियं अलाहि ता अण्णेणं, सामि मोएमो, आगया, एगेण णावा गहिया, एगो सुदाढेण सम जुज्झइ, सो महिड्डियो। तस्स पुण चवणकालो, इमे य अहुणोववण्णया, सो तेहिं पराइओ, ताहे ते णागकुमारा तित्थगरस्स महिमं करेंति, सत्तं रूवं च गायंति, एवं लोगोऽवि ततो सामी उत्तिण्णो / तत्थ देवेहि सुरहिगंधोदयवासं पुप्फवासं च बुट्ट, तेऽवि पडिगया। अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहसुरहिपुर सिद्धजतो, गंगा कोसिअ विऊ य खेमिलओ। नाग सुदाढे सीहे, कंबलसबला य जिणमहिमा // 466 / / महुराए जिणदासो, आहीर विवाह गोण उववासे। भंडीर मित्तऽवच्चे, भत्ते णागो हि आगमणं // 470|| वीरवरस्स भगवओ, नावारूढस्स कासि उवसग्गं / मिच्छादिष्ट्ठि परद्धं, कंबलसबला समुत्तारे॥४७१।। पदानि सुरभिपुरं सिद्धयात्रः गङ्गाः कौशिकाः विद्वांश्च खेमिलकः नागः सुदंष्ट्रः सिंहः कम्बलसबलौ च जिनमहिमा मथुरायां जिनदासः आभीरविवाहः गोः उपवासः भण्डीरः मित्रम् अपत्ये भक्त नागौ अवधिः आगमनं वीरवरस्य भगवतः नावपमरूढस्य कृतवान् उपसर्ग मिथ्यादृ

Page Navigation
1 ... 1396 1397 1398 1399 1400 1401 1402 1403 1404 1405 1406 1407 1408 1409 1410 1411 1412 1413 1414 1415 1416 1417 1418 1419 1420 1421 1422 1423 1424 1425 1426 1427 1428 1429 1430 1431 1432 1433 1434 1435 1436 1437 1438 1439 1440 1441 1442 1443 1444 1445 1446 1447 1448 1449 1450 1451 1452 1453 1454 1455 1456 1457 1458 1459 1460 1461 1462 1463 1464 1465 1466 1467 1468 1469 1470 1471 1472 1473 1474 1475 1476 1477 1478 1479 1480 1481 1482 1483 1484 1485 1486 1487 1488 1489 1490 1491 1492