Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 06
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ वीससाबंध 1410- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वुकं ति वीससाबधं-पुं०(विस्रसाबन्ध) स्वभावसंपन्ने, पुद्गलानां छायातपत्वादिना | 103 उ०। रूपेण बन्धे, सूत्र० १श्रु० 1 अ०१ उ०। बंधण' शब्दे पञ्चमभागे 1223 शुक्रस्य नव वीथय:पृष्ठे दर्शितोऽयम्।) समधरणितलादुपरिष्टान्नवयोजनशताभ्यन्तरचारिणो ग्रह-विशेषस्य वीससिय-पुं०(वैससिक) विस्त्रसा परिणामसिद्धे संध्याभरागादी, आ० व्यतिकरमाहम०१अ01 सुक्कस्स णं महागहस्स नव विहीओ पण्णत्ताओ, तं जहावीससेण-पुं०(विश्वसेन) विश्वा हस्त्यश्वरथपदातिचतुरगवलसमेता सेना हयवीही गयवीही णागवीही बसहवीही गोवीही उरगवीही अयवीही यस्य स विश्वसेनः / चक्रवर्तिनि, सूत्र०१ श्रु०७ अ० / शान्तिजिनपितरि, मियवीही वेसाणरवीही। (सू०६६६) ति०। आ० म० / अहोरात्रस्याष्टादशे मुहूर्ते, ज्यो०२ पाहु०। ज०। शुक्रस्य महाग्रहस्य नव वीथयः- क्षेत्रभागाः प्रायस्विभिस्त्रिभिनवीसाएमाण-त्रि०(विस्वादयत) विशेषेण स्वादयति, भ० 3 श०१ उ०। क्षत्रैर्भवन्ति। तत्र हयसंज्ञा वीथी हयवीथीत्येवं सर्वत्र / संज्ञा च व्यवहार - वीसाण-पुं०(विष्वाण) विष्वण- ण्वुल् / षत्वणत्वे वलोपे- "लुस-य- शेषार्थ या चेह हयवीथी साऽन्यत्र नागवीथीति रूढा, नागवीथी चैरावणर-व-श-ष--सांश-ष-सां दीर्घः" / / 8 / 1 / 43 / / इति इकारस्य दीर्घः। पदमित्येतासां च लक्षण भद्रबाहु-प्रसिद्धाभिरार्याभिः क्रमेण लिख्यतेविष्वाणः / वीसाणो। भोजने, प्रा०। 'भरणी स्वात्याग्नेय, नागाख्या वीथिरुत्तरे मार्ग। रोहिण्यादिरिभाख्या, वीसाजणिज्ज-त्रि०(विस्वादनीय) विशेषतः स्वादनीये, प्रज्ञा० 17 पद चादित्यादिः सुरगजाख्या // 1 // " (आग्रेयं कृत्तिका, आदित्यं पुनर्व४ उ०। सुरिति) "वृषभाख्या पैत्र्यादिः, श्रमणादिमध्यमे जरद्गवाख्याः / प्रोष्ठापदादिचतुष्के, गोवीथिस्तासु मध्यफलम्) ॥२॥(पैत्र्यं मघा वीसाम-पुं०(विश्राम) लुप्त-य-र-व-श-ष-सां श-ष- सा दीर्घः" मध्यमे इति-मार्गे प्रोष्टपदा-पूर्वभद्रपदा) "अजवीथी हस्तादिद्गवीथी ||8 / 1 / 43 / / इति दीर्घत्वमिकारस्य। प्रा० / श्रमापनये, आ० म०१ अ०। वैन्द्र देवतादिः स्यात् / दक्षिणमार्गे वैश्वानर्याषाढद्वयं ब्राह्म्यम् // 3 // " वीसामण--न०(विश्रामण) श्रमापनयनकरणे, ध० 3 अधिक। (इन्द्रदेवता ज्येष्ठा ब्राम्य-मभिजिदिति) 'एतासुभृगुर्विचरति, वीसाल-धा०(मिश्रि) संयोजने, "मिश्रेर्वीसाल-मेलवौ' / / 8 / 4 / 28|| नागगजैरावतीषु वीथिषु चेद् / बहु वर्षेत्पर्जन्यः, सुलभौषधयोऽर्थवृद्धिश्व इति मिश्रयतेय॑न्तस्य वीसालमेलवौ इत्यादेशौ। वीसालइ। मिश्रयति। // 4 // पशुसंज्ञासु च मध्यम-सस्यफलादिर्यदा चरेभृगुजः। अजमृगप्रा०४ पाद। वैश्वानरवीथिष्वर्थभयार्दितो लोकः // 5 // '' इति वीथिविशेषचारेण च वीसास-पुं०(विश्वास) विश्वासयतीति विश्वासः / व्यवहारे वञ्चनाया शुक्रादयो ग्रहा मनुजादीनामनुग्रहोपघातकारिणो भवन्तीति द्रव्यादिसा अकरणे, व्य० 3 उ०। त्वं मम माता भगिनी दुहिता वा अतो मा भैषीरेवं मग्या कर्मणामुदयादिसद्भावादिति। स्था०६ ठा० 3 उ० / सूत्र० / पं० वयोऽनुरूपे अविरुद्ध वचने, बृ०३ उ०। नि० चू० / व० / उभयोरपि पार्श्वयोरेकैकश्रेणिभावेन श्रेणिद्वये, जी०३ प्रति०४ वीसु-अव्य०(विष्वच्) "ध्वनिविश्वचोरुः" ||8/152 // इत्यादेरस्य अधि०। उत्त्वम् / प्रा० / "लुप्त-य-र-व-श-ष-सां श-ष-सां दीर्घः' वीहिया-स्त्री०(वीथिका) मार्गे, स्था०६ठा०३ उ०। ||8/1 / 13 / / इति इकारस्य दीर्घा वा। प्रा०। "वा स्वरे मश्च / / 8 / 1 / 24 / / वुइय-त्रि०(उक्त) स्वरूपतः प्रतिपादिते, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। स्था०। भ०। इत्यन्त्यस्वरे परेऽनुस्वारो वा / प्रा० / पृथगर्थे, विशे० / व्य० / नि० चू०। बुंद-न०(वृन्द) "उदृत्वादौ'' ||8 / 1 / 131 / / इति ऋत उत्त्वम् / समूहे, वीसुंउवस्सय–पुं०(विष्वगुपाश्रय) विष्वग् भेदेन उपाश्रय आश्रयः / पृथक् प्रा०१पाद। पृथगाश्रये, ओघ०। बुंदारअ-पुं०(वृन्दारक) "निवृत्त- वृन्दारके वा'' ||8/1 / 132 / / इति वीसुकरण-न०(विष्वक्करण) विसंभोगकरणे, व्य०७ उ०। नि० चू०। ऋत उत्त्वम्। दैवते, प्रा०१पाद। वीसुंभण-न०(विष्वग्भवन) मरणे, शरीरात् पृथग्भवने, स्था०५ ठा०२ | वंदावण-न०(वृन्दावन) "उदृत्वादौ" ||8/1 / 13 / / इति ऋत उत्त्वम्। उ० / बृ०। व्य०। मथुरासविधे स्वनामप्रसिद्ध अरण्ये, प्रा०। वीतुय-(देशी)-पृथगित्यर्थे, दे० ना०७ वर्ग 73 गाथा। वुकंत-त्रि०(व्युत्क्रान्त) परिणते, विध्वस्ते, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ० वीसेणि-स्त्री०(विश्रेणि) विषमश्नेणौ, मचा क्रोशन्तीति न्याया विश्रेणि- 1 उ०। व्यवस्थित, विशे०1व्य० / स्था०। वुक्कंतजोणिय-त्रि०(व्युत्क्रान्तयोनिक) व्युत्क्रान्ता अपगता योनिरुवीहणग-न०(भयानक) भयोत्पादके, प्रश्न०१आश्र० द्वार। आ० म०। | त्पत्तिस्थानं यत्र तद्व्युत्क्रान्तयोनिकम् / प्रासुके, पिं०। वीहि-त्री०(वीथि) रथ्याविशेषे, आ० म०१०। पथि, आचा०१ श्रु० | वुकंति-स्त्री०(व्युत्क्रान्ति) उत्पत्ती, नं०।

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