Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 06
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ वीर 1373 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर इ-एत्थ अच्छंदओ नाम जाणओ। सिद्धत्थो भणति-सो ण किंचि जाणइ, ताहे लोगो गंतुंभणइ-तुम न किंचि जाणसि, देवजओ जाणइ। सो लोयमज्झे अप्पाणं ठावेउकामो भणति-एह जामो, जइ मज्झ पुरओ जाणइ तो जाणइ। ताहे लोगेण परिवारिओ एइ, भगवओ पुरओ ठिओ तणं गहाय भणति-एयं तणं किं छिदिहि तिन वत्ति, सो चिंतेइ-जई भणति-न छिजिहिइ त्ति तो छिंदिस्सं, अह भणइ-छिजिहि त्ति तो न छिंदिस्सं। ततो सिद्धत्थेण भणिअं-न छिजिहि ति, सो छिदिउमादत्तो, सक्केण य उवओगो दिण्णो, वन पक्खितं, अच्छंदगरस, अंगुलीओ दस विभूमीए पडिआओ, ताहे लोगेण खिंसिओ, सिद्धत्थो य से रुट्ठो। अमुमेवार्थ समासतोऽभिधित्सुराह नियुक्तिकार:रोद्दा य सत्त वेयण, थुइ दस सुमिणुप्पलद्धमासे य। मोराए सवारं, सक्को अच्छंदए कुविओ॥४६४।। समासव्याख्या-रौद्राश्च सप्त वेदना यक्षेण कृताः, स्तुतिश्च तेनैव कृता, दश स्वप्ना भगवता दृष्टाः, उत्पलः फल जगाद, 'अद्धमासे य' त्ति अर्धमासमर्धनासं चक्षपणभकाति, मोरायां लोकः सत्कारं चकार शक्रः अच्छन्दक तीर्थकरहीलनात् परिकुपित इत्यक्षरार्थः / इयं नियुक्तिगाथा। एतास्तु मूलभाष्यकारगाथा:भीमऽट्टहास हत्थी, पिसाय नागे य वेदणा सत्त। सिरकण्णनासदन्ते, नहऽच्छि पट्ठीय सत्तमिआ।।११२।। तालपिसायं 1 दो को-इला य 3 दामदुगमेव 4 गोवरगं 15 // सर ६सागर 7 सूरं 8 तेह-मन्दर 10 सुविणुप्पले चेव।।११३|| मोहे य झाण पवयण ३,धम्मे 4 संघे 5 य देवलोए 6 य। संसारं 7 णाण 8 जसे धम्म परिसाएँ मज्झम्मि // 114 / / भीमाऽट्टहासः हस्ती पिशाचो नागश्च वेदनाः सप्त शिरः कर्णनासादन्तनखाक्षिपृष्ठौ च सप्तमी, एतव्यन्तरेण कृतम्। तालपिशाचं द्वौ कोकिलो च दामदयेभवे गोवर्ग सरः सागरं सूर्यम् यन्त्रं मन्दरं, 'सुविणुप्पले चेव' त्ति, एतान् स्वप्नान दृष्टवान्, उत्पलश्चैव फलं कथितवान् इति। तचेदम्मोह चध्यानं प्रवचनंधर्भः सङ्गश्च देवलोकश्च देवजनश्चेत्यर्थः, संसारं ज्ञानं यशः धर्म पर्षदो मध्ये, मोहं च निराकरिष्यसीत्यादिक्रियायोगः स्वबुद्ध्या कार्यः। मोरागसण्णिवेसे, बाहिं सिद्धत्थतीतमाईणि। साहइ जणस्स अच्छं-दपओसोछेअणेसक्के / / 16 / / अर्थोऽस्याः कथानकोक्त एव वेदितव्य इति / इयं गाथा सर्वपुस्तकेषु नास्ति, सोपयोगा च। कथानकशेषम्- 'तओ सिद्धत्थो तस्स पओसमावण्णो त लोग भणति-एस चोरो' कस्सणेण चोरियं ति भणह, अत्थेत्थ वीरघासो णाम कम्मकरो ? सो पादेसु पडिओ अहे ति, अस्थि तुब्भ अमुककाले दस पलयं वट्टयं णट्टपुव्वं ? आमं अस्थि, तं एएण हरिय, तं पुण कहिं ? एयस्स पुरोहडे महिसिंदुक्खस्स पुरस्थिमेण हत्थमित्तं गंतूर्ण तत्थ खणिउं गेण्हइ / ताहे गता, दिट्ठ, आगया कलकलं करेमाणा। अण्णं पि सुणह-अस्थि एत्थं इंदसम्मो नाम गिहवई ? ताहे भणति अत्थि, ताहे सो सयमेव उवढिओ, जहा अहं, आणवेह, अस्थि तुम्भ ओरणओ अमुयकालम्मि नहिल्लाओ? स आह-आम अस्थि, सो एएण्ण मारित्ता खइओ, अट्टियाणि य से बदरीए दक्खिणे पासे उकुरुडियाए नियाणि, गया, दिवाणि, उक्किट्ठकलयलं करेंता आगया, ताहे भणंतिएवं बितिअं'। __ अमुमेवार्थं प्रतिपादयन्नाह नियुक्तिकृत्तणछेयंगुलि कम्मा--र वीरघोस महिसिंदु दसपलिअं। बिइइंदसम्म ऊरण, बयरीए दाहिणुकुरुडे ||465 / अच्छन्दकः तृणं जग्राह, छेदः अड्गुलीनां कृतःखल्विन्द्रेण, 'कम्मारवीरघोस' ति कर्मकरो वीरघोषः, तत्संबन्ध्यनेन 'महिसिंदुदसपलिय' दश पलिकं करोटकं गृहीत्वा महिसेन्दुवृक्षाधः स्थापितम्, एकं तावदिदं, द्वितीयम् इन्द्रशर्मण ऊरणकोऽनेन भक्षितः, तदस्थीनि चाद्यापि तिष्ठन्त्येव बदर्या अधः दक्षिणोत्कुरुट इति गाथार्थः॥४६५|| "ततियं पुण अवचं, अलाहि भणितेण, ते निबंध करेंति, पच्छा भणति-वचह भक्षा से कहेहिइ, सा पुण तस्स चेव छिड्डाणि मागमाणी अच्छति, ताए सुयं-जहा सो विडबिओ त्ति 'अंगुलीओ से छिन्नाओ' सा य तेण तदिवसं पिट्टिया सा चिंतेति-नवरि एउ गामो' ताहे साहेमि 'ते आगया पुच्छति, सा भणइ-मा से नामं गेण्हह' भगिणीए पती ममं नेच्छति ते उक्किट्टि करे माणा तं भणंति-एस पावो 'एवं तस्स उड्डाहो जाओ' एस पावो, 'जहान कोइ भिक्ख पि देइ ताहे अप्पसागारियं आगओ भणइ-भगवं ! तुब्भे अन्नत्थ वि पुजिज्जह 'अहं कहिं जामि ?' ताहे अचियत्तोग्गहो त्ति काउं सामी निग्गओ। ततो वचमाणस्स अंतरा दो वाचालाओ-दाहिणा उत्तरा य 'तासिं दोण्ह वि अंतरा दो नईओ-सुवण्णवालुगा रुप्पवालुगा य' ताहे सामी दक्खिण्णवाचालाओ सन्निवेसाओ उत्तरवाचालं वचइ 'तत्थ सुवण्णवालुयाए नदीए पुलिणं कंटियाए तं वत्थं विलग्ग' सामी गतो 'पुणोऽवि अवलोइय' किं निमित्तं ? केई भणति-ममत्तीए; अवरेकिंथंडिल्ले पडिअं अथंडिले त्ति 'केई-सहसागारेणं' केई-वरं सिस्साणं वस्थपतं सुलभं भविस्सइ ? तं च तेण धिज्जाइएण गहिअं 'तुण्णागस्स उवणीअ सयसहस्समोल्लं जायं' एककस्स पण्णासं सहस्साणि जायाणि / अमुमेवार्थमभिधित्सुराह-- तइअमवचं भज्जा, कहिही नाहं तओ पिउवयंसो। दाहिणवायालसुव-प्रणवालुगाकंटए वत्थं / / 466 / / पदानि-तृतीयमवाच्य भार्या कथयिष्यति'ततः पितुर्वयस्यस्तु दक्षिणवाचालसुवर्णवालुकाकण्टके वस्त्रं' क्रियाऽध्याहारतोऽक्षरगमनिका स्वबुद्ध्या कार्यति। ताहे सामी वचइ उत्तरवाचाल 'तत्थं अंतरा कणगखल नाम आसमपयं तत्थ दो पंथा-उज्जुगो, वंको य। जो सो उज्जुओ सो कणगखलं मझेण वचइ, वंको परिहरंतो, सामी उज्जुगेण पहाविओ, तत्थ गोवालेहिं वारिओ 'एत्थ दिट्ठिविसो सप्पो' मा एएण वग्रह 'सामी जाणति--जहेसो भविओ संबुज्झिहिति' तओ गतो जक्खघरमंडवियाए पडिभं टिओ। सो पुण को पुव्वभवे आसी? खमगो 'पारणाए गओ वासिगभत्तरस' तेणं मंडुक्कलिया विराहिआ 'खुड्डएण परिचोइओ' ताहे

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