Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 06
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ विहार 1328 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहि 1. चविषति सति ग्रामादौ भवेत् पथि विराधना द्विविधा- (26) आचार्यादिना सह गच्छेतः साधोविधिः। आत्मनिराधना, संयमविराधना च / पथि स्तेनाश्च द्विप्रकारा भवन्ति- / (27) विहारक्षेत्रस्य पूर्वोत्तरदिग्मानम्। उपधिस्तेनाः, शरीरस्तेनाश्चालब्धेऽपि कृच्छ्रात्पात्रके तत्परिकर्मयतः (28) भगवता कुत्र (51) इदं सूत्रं निरूपितम्। तद्व्यापारे लग्नस्य सूत्रार्थपरिहाणिः ओघ०। (प्रलम्बार्थ विहारः 'पलंब' शब्दे पञ्चमभागे 712 पृष्ठ गतः।) अध्वद्वारे,बृ०१ उ०३ प्रक० / निक (26) आर्यक्षेत्रविहारकारणम्। चूत। स्वाध्यायार्थ कन्द-रोद्यानादौ गमने,जीत०। बौद्धाद्यश्रये, प्रश्न० (30) निर्गन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा रात्रौ विकाले वा विहारनिषेधः / 1 आश्र० द्वार। (दुर्भिक्षादौ रात्रिभोजनस्य कल्पनीयता 'राइभोयण' (31) विहारे उपकरणत्यागे प्रायश्चित्तम्। शब्देऽस्मिन्नेवभागे 516 पृष्ठे उक्ता / ) चारिकाप्रविष्टस्य भिक्षोर्विहारः (32) किं पुनः सार्थे प्रत्युपेक्षणीयम्। 'थरियापविट्ठ' शब्दे तृतीयभागे 1155 पृष्ठे गतः / ) (गणादपक्रम्य (33) अध्वानं प्रतीत्य भङ्गाः। परपाखण्डप्रतिमानुपसम्पद्यते विहरेदिति 'उपसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 1005 पृष्ठे उक्तम्।) (एकाकी एकया स्त्रिया सहन विहरेत् इति इत्थ' (34) रात्रौ विकाले वा एकाकिनो विहारनिषेधः / शब्दे द्वितीयभागे 614 पृष्ठे गतम्।) जिनकल्पिकस्य विहारः 'थविरकप्प' (35) एकाकिनो यतनाप्रतिपादनम्। शब्दे चतुर्थ-भागे 2388 पृष्ठे गतम्।) 'शिष्यस्कन्धचढितविहारवर्णकः (36) निर्गन्थ्या रात्रिविहारः। 'खंधचढियविहार' शब्दे तृतीय भागे 701 पृष्ठे गताः / ) (एकाकि- (37) विहारभूमिविषयः। विहारप्रतिमा एगल्ल विहार' शब्दे तृतीयभागे 20 पृष्ठे उक्ता।) (वीर विहारकप्प-पुं०(विहारकल्प) विहरणं विहारो वर्त्तनं तस्य कल्पो जिनेन्द्रस्य विहारः 'वीर' शब्दे वक्ष्यते 1) (वे वर्षारात्रे नैकत्र वसेत्, व्यवस्था स्थविरकल्पादीनामुच्यते-यत्र ग्रन्थेऽसौ विहारकल्पः पा विहारकालमानं च 'विवित्तचरिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1248 पृष्ठे उत्कालिकश्रुतभेदे, नं०1 गतम् / ) (नदीसन्तरणम् ‘णईसंतार' शब्दे चतुर्थभागे 1738 पृष्ठे उक्तम्।) विहारगमण-न०(विहारगमन) विहरणं-क्रीडन विहार स्तेन गर नम्: अधिकारसूची उद्यानादौ क्रीडया गमने, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। (1) विहारनिक्षेपः। विहारघरय-न०(विहारगृहक) स्वनामख्याते उद्याने, चत्र दा सुपूज्या (2) गीतार्थनिश्रया विहारः। जिनो निष्क्रान्तः / आ० म०१ अ०1 (3) आत्मविराधनादिद्वारगाथा / विहारचरिआ-स्त्री०(विहारचर्या) विहाररूपायां साधुचर्यायाम, दश०२ (4) विहारकल्पिकः। अ०। ('विवित्तचरिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विस्तरतो वर्णितैषा।) (5) गीतार्थानां तनिश्रितानां वा विहारः / विहारजत्ता-स्वी०(विहारयात्रा) उद्यानक्रीडायाम, 'विहारजत्तं निजाओ, (6) अगीतार्थस्य स्वच्छन्दमेकाकिनो विहारनिषेधः। मंडिकुंडिसि चेइए उत्त०२ अ०। (7) आचार्यस्योपाध्यायस्यैकाकिनो विहारो न कल्पते। विहारभूमि-स्त्री०(विहारभूमि) स्वाध्यायभूमी, आचा०२ श्रू०१चू०१ (8) जघन्यतः पञ्चकसप्तकाभ्यां हीनतायां प्रायश्चित्तम्। अ०१ उ० / बृ० / नि० चू०। भिक्षानिमित्तभ्रमणभूमौ, व्य०४ उ० / जिनचैत्यगमने, 'विहारो जिनसद्मनीति' वचनात् / कल्प०३ अधि० (8) व्याकुलनाया विहारः। ६क्षण। (10) कीदृशे द्वयोरन्यत्र गमनमुचितम् ? विहारवत्तिया-स्त्री०(विहारप्रतिज्ञा) विहरिष्यामीति गमन-प्रतिज्ञायाम्, (11) यैः कारणैरुपसंपद्यते तेषां निरूपणम्। आचा०२ श्रु०१ चू० 3 अ० 1 उ०। (12) वर्षासुन विहरेत्। विहारि(न)--त्रि०(विहारिन्) विहरतीत्येवंशीलो विहारी। ध० 3 अधि० / (13) विहारे आबाधादीनि स्थानानि। विहरणशीले, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। (14) सामान्येन शय्यामङ्गीकृत्य विधिः। विहादरी-स्त्री०(विभावरी) रात्रौ, ! पाइ० ना०। (15) प्रथमप्रावृषि ग्रामाऽनुग्रामविहारे प्रायश्चित्तम् / विहावसु-पुं०(विभावसु) अग्नौ, पाइ० ना०। (16) वर्षासु व्यथतिक्रान्तासु विहरेत्। विहि-स्त्री० विधि-पुं० विधानं विधिः। प्रकारे, आव०६ अ० / ज्ञा० / (17) हेमन्तग्रीष्मयोर्विहारः। दश० / भेदे, व्य०५ उ० / उपा० / सम्यग्ज्ञानदर्शनयोर्योगपद्येनाप्तौ, सूत्र०१U०११अ०उपोद्घाते,आव०१ अ०। प्ररूपणे, आ०म०१ (18) विहारद्वारविषयो विधिः। अ०। अनुष्ठाने, प्रश्न०३ आश्र०द्वार। विधाने, सम्यक्करणे, पञ्चा०५ (16) मासकल्पादन्येऽपि विहाराः। विव०।०। अनुज्ञायाम, आव० 4 अ०। न्यायः स्थितिमर्यादा विधान(२०) मार्गयतनामधिकृत्य विहरेत्। मित्येकार्थाः / आचारे, व्य०७उ० आ०म०। विस्तरे, रचनायाम, (21) यत्राऽन्तरा ग्रामे चौरास्तत्र न विहरेत्। नि० चू०१उ०। सर्वकौशले, आ० म०२ अ०। प्रतिपत्तिक्रमे, पञ्चा०२ (22) अराजकादिग्रामेषु न विहरेत्। विव० / शास्त्रोक्ते न्याये, श्रद्धासत्कारक्रमयोगाऽऽदौ, हा०२४ अष्ट० / अस्तित्वादिभावे नयो० / विधिमभिदधति- "विधिः-- सदश" इति / (23) मार्गे वप्रादिके विहारविधिः / सदसदंशाल्मनो वस्तुनो योऽयं सदंशो भावरूपः स विधिरित्यभिधीयते। (24) प्रातिपथिकपृच्छायां विहारविधिः। रत्ना०३ परि०। विचारे, सम्म०३ काण्ड। "वेमाजल्याद्याः स्त्रियाम्" (25) मार्गे वप्राऽऽदीनि नाऽड्गुल्या दर्शयेत्। ||8/1 / 35 / / इति स्त्रीत्वम्-विही। प्रा०।

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